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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
मुल:--पच्छा बि ते पयाया
खिए , चंति अपरमवणाई । जेसि पियो तवो संजमो
य खंती य बम्भचेरं च ॥२॥ छाया:-पश्चादपि ते प्रयाता:
क्षिप्रं गच्छन्त्यमर भवनाति । येषां प्रियं तप: संयमश्च
___ शान्तिश्च ब्रह्मचर्य च ॥२२॥ अस्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (पच्छा वि) पीछे भी अर्थात् वृद्धावस्था में (ते) ये मनुष्य (पयाया) सन्मार्ग को प्राप्त हुए हों (य) और (जसि) जिस को (तवो) तप (संजमो, संयम (य) और (खंती) समा (चें) और (बम्सचर) ब्रह्मचर्य (पियो) प्रिय है, वे (खिप्पं) शीघ्र (अमरमवणाई) देव-भवनों को (गच्छंति) जाते हैं। ___ भावार्थ:-हे आर्य ! जो धर्म की उपेक्षा करते हुए वृद्धावस्था तक पहुंच गये हैं उन्हें भी हताश न होना चाहिए। अगर उस अवस्था में भी वे सदाचार को प्राप्त हो जायें, और तप, संयम, क्षमा, ब्रह्मचर्य को अपना लाइला साथी बना लें, तो वे लोग देवलोक को प्राप्त हो सकते हैं। मुल:-तवो जोई जीवो जोइठाणं,
जोगा सुया सरीर कारिसंग । कम्मेहा संजम जोगसंती,
होम हुणामि इसिणं पसत्थं ॥२३।। छाया:--तपो ज्योतिर्जीवोज्यातिः स्थान
योगाः मुत्रः शरीरं करीषाङ्गम् । कर्मधाः संयमयोगाः शान्तिोमेन
जुहोम्य॒षिणा प्रशस्तेन ॥२३॥