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शान प्रकरण
अन्नपार्थः हे इन्द्रभूति ! (जावंत) जितने (अबिज्जा) तत्त्वज्ञान रहित (पुरिसा) मनुष्य हैं (ते) वे (सव्वे) सब (दुक्खसम्मवा) दुःख उत्पन्न होने के स्थान रूप हैं । इसी से वे (मूढा) मुर्ख (अणतए) अनंत (संसारम्मि) संसार में (बहुसी) अनेकों बार लुति ; पीडिरा होते हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! तत्त्वज्ञान से होन जितने भी आत्मा हैं, वे सबके सब अनेकों दुःखों के मामी है। इस अनंत संसार की पक्र फेरी में परिभ्रमण करते हुए वे नाना प्रकार के दुःखों को उठाते हैं । उन आत्माओं का क्षणभर के लिए भी अपने कृत कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता है । हे गौतम ! इस कदर ज्ञान की मुख्यता बताने पर तुझे यों न समझ लेना चाहिए कि मुक्ति फेवल ज्ञान ही से होती है बल्कि उसके साथ किया की भी जरूरत है । ज्ञान और क्रिया इन दोनों के होने पर ही मुक्ति हो सकती है।
मूल;--इहमेगे उ मण्णंति, अप्पच्चक्खाय पावगं ।
___ आयरिसं विदित्ताणं, सव्वदुक्खा विमुच्चई ॥८॥ छाया:--इहेके तु मन्यन्ते अप्रत्याख्याय पापकम् ।
आर्यत्वं विदित्वा, सर्वदुःनेभ्यो विमुच्यन्त ||८|| अन्वयार्थः-हे इन्द्रभूति ! (उ) फिर इस विषय में (इह) यहाँ (मेगे) कई एक मनुष्य यों (मण्णंति) मानते हैं कि (पावगं) पाप का (अप्पचक्खाय) बिना त्याग किये ही केवल (आमरिअं) अनुष्ठान को (विदित्ताणं) जान लेने ही से (सबदुवाला) सब दुःखों से (विमुच्चई) मुक्त हो जाता है ।
भावार्थ:-हे आर्य ! कई एक लोग ऐसे भी हैं, जो यह मानते हैं कि पाप के बिना ही त्यागे, अनुष्ठान मात्र को जान लेने से मुक्ति हो जाती है । पर उनका ऐसा मानना नितान्त असंगत है । क्योंकि अनुष्ठान को जान लेने ही से मुक्ति नहीं हो जाती है। मुक्ति तो तभी होगी, जब उस विषय में प्रवृत्ति की जायगी। अत: मुक्ति पथ में ज्ञान और क्रिया दोनों की आवश्यकता होती है । जिसने सद् ज्ञान के अनुसार अपनी प्रवृत्ति करली है, उसके लिए मुक्ति सचमुच ही अति निकट हो जाती है। अफेले ज्ञान से मुक्ति नहीं होती है।