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निम्रन्थ-प्रवचन
छायाः-निर्ममो निरहङ्कारः, निस्संगस्त्यक्तगौरवः ।
समश्च सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु च ॥१२॥ अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! महापुरुष वही है, जो (निम्ममो) ममतारहित (निरहंकारो) अहंकाररहित (निस्संगो) बाह्य अभ्यन्तर संगरहित (अ) और (चत्तगारो) त्याग दिया है अभिमान को जिसने (सधभूएस) तथा सर्व प्राणी माश्व क्या (तसेसु) स (अ) और (पावरेसु) स्थावर में (समो) समान भाव है जिसका।
भावार्थ:-हे गौतम ! महापुरुष नहीं है जिसने ममता, अहंकार, संग, बड़प्पन आदि सभी का साथ एकान्त रूप से छोड़ दिया है। और जो प्राणी मात्र पर फिर चाहे वह कीड़े-मकोड़े के रूप में हो. या हाथी के रूप में. सभी के ऊपर समभाव रखता है।
मुलः-लाभालाभे सृहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा।
समो निंदापसंसास समी माणावमाणओ ॥१३॥ छाया:-लाभालाभे सुखे दुःखे, जीविते मरणे तथा।
समो निन्दाप्रशंसासु, समो मानापमानयोः ।।१३।। अग्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! महापुरुष यही है जो (लामालाभे) प्राप्तिअप्राप्ति में (सुहे) सुख में (दुस्खे) दुःख में (जीविए) जीवन में (मरणे) मरण में (सभो) रामान भाव रखता है। तथा (निंदापसंसारा) निंदा और प्रशंसा में एवं (माणावमाणओ) मान-अपमान में (समो) समान माय रखता है ।
भावार्थ:-हे गौतम ! मानव देहधारियों में उत्तम पुरुष वही है, जो इच्छिस अर्थ की प्राप्ति-अप्राप्ति में, सुख-दुःख में, जीवन-मरण में तथा निन्दा और स्तुति में और मान-अपमान में सदा समान भाव रखता है। मुल:-अणिस्सिओ इहं लोए, परलोए अणिस्सिओ।
वासीचंदणकप्पो अ, असणे अणसणे तहा ।।१४।। छाया:-अनिश्चित इह लोके, परलोकेऽनिश्चित: ।
वासी चन्दनकल्पश्च, अशनेऽनशने तथा ॥१४||