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ज्ञान प्रकरण
त्राण-शरण (ण) नहीं होती है । तो फिर (विमाणुसासणे) तांत्रिक या कलाकौशल की विद्या सीख लेने पर (कओ) कहाँ से त्राण शरण होगी।
भावार्थ:-हे गौतम ! थोड़ा-बहुत लिख-पढ़ जाने हो से मुक्ति हो। जायगी इस प्रकार का गर्व करने वाले लोग मूर्ख हैं । कर्मों के आवरण ने उनके असली प्रकाश को ढक रक्खा है। वे यह नहीं जानते कि प्राकृत संस्कृत आदि अनेकों विचित्र भाषाओं के सीख लेने पर भी परलोक में कोई माषा रक्षक नहीं हो सकती है। तो फिर बिना अनुष्ठान के तांत्रिक कलाकौशल' की साधारण विद्या की तो पूछ ही क्या है ? वस्तुतः साधारण पढ़लिखकर यह कहना कि ज्ञान ही से मुक्ति हो जायगी, मात्मा को धोखा देना है, आत्मा को अघोगति में डालना है । मुल:-जे केइ सरीरे सत्ता, वण्णे रूवे अ सव्वसो ।
मणसा कायवक्तामा, सच ते दुक्खसम्भवा ॥११॥ छाया;-ये केचित् शरीरे सक्ताः , वर्ण रूपे च सर्वशः ।
__ मनसा कायवाक्येन, सर्वे ते दुःखसंभवाः ।।११।।
अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जे केई) जो कोई भी ज्ञानवादी (मणसा) मन (कायवक्केणं) काय, वचन करके (सरीरे) शरीर में (वण्णे) वर्ण में (रूबे) रूप में (अ) बान्दादि में (सव्वसो) सर्वथा प्रकार से (सत्ता) आसक्त रहते हैं (ते) वे (सब्वे) सब (दुक्ख सम्भवा) दुःस्व उत्पन्न होने के स्थान
भावार्थ:-हे गौतम ! ज्ञानवादी अनुष्ठान को छोड़ देते हैं। और रूप गर्व में मदोन्मत्त होने वाले अपने शरीर को हष्ट-पुष्ट रखने के लिए वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, आदि में मन, वचन, काया से पूरे-पूरे आसक्त रहते हैं, फिर भी वे मुक्ति की आशा करते हैं । यह मृग-पिपासा है, अन्ततः ये सब दुःख ही के मागी होते हैं।
मूल:-निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो।
समो अ सधभूएसु, तसेसु थावरेसु थ ॥१२॥