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। बारम शुद्धि के उपाय
५३ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (तो) तप रूप तो (जोई) अग्नि (जीको) जीव रूप (जोइठाणे) अग्नि का स्थान (जोगा) योग रूप (सुया) कड़छी (सरीरं) : शरीर रूप (कारिसंग) कण्डे (कम्मेहा) कर्म रूप इंघन-काष्ठ (संजम जोग)
संयम व्यापार रूप (संती) शांति-पाठ है । इस प्रकार का (इसिणं) ऋषियों से (पसत्यं) श्लाघनीय चारित्र रूप (होम) होम को (हुणामि) करता हूँ। ___ भावार्षः-हे गौतम ! तप रूप जो अग्नि है, वह कर्म रूप ईधन को भस्म करती है। जीव अग्नि का कुण्ड है। क्योंकि तप रूप अग्नि जीव संबंधिनी ही है एतदर्थ जीव हो अग्नि रखने का कुण्ड हुआ। जिस प्रकार कड़छी से घी आदि पदार्थों को डाल कर अग्नि को प्रदीप्त करते हैं। ठीक उसी प्रकार मन, असन और काया के शुभ व्यापारों के द्वारा तप रूप अग्नि को प्रदीप्त करना चाहिए । परन्तु शरीर के बिना तप नही हो सकता है । इसीलिः हम कण्डे, कर्म रूप ईंधन और संयम व्यापार रूप शान्ति पाय पढ़ करके, मैं इस प्रकार कृषियों के द्वारा प्रशंसनीय चारित्र साधन रूप पज्ञ को प्रतिदिन करता
मूलः-धम्मे हरए बंभे संतितित्थे,
___ अणाविले अत्तपसन्नलेसे । जहि सिपणाओ विमला विसुद्धो,
सुसी तिभूओ पजहामि दोसं ॥२४॥ छायाः-धर्मो ह्रदो बह्म शान्तितीर्थ
मनाविल आत्मप्रसन्नलेश्यः । यस्मिन् स्नातो विमलो विशुद्धः
सुशीतीभूतः प्रजहामि दोषम् ।।२४॥ अन्वयार्थः-हे इन्द्रभूति ! (अणाबिले) मिथ्यात्व करके रहित स्वच्छ (अत्तपसनलेसे) आत्मा के लिए प्रशंसनीय और अच्छी मावनाओं को उत्पन्न करने वाला ऐसा जो (धम्मे) धर्म रूप (हरए) द्रह और (बंभे) महाचर्य रूप (संतितित्थे) शान्ति तीर्थ है। (जहिं) उस में (सिष्णाओ) स्नान करने से तथा