________________
निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(पांचया अध्याय)
ज्ञान प्रकरण
(श्री भगवानुवाच) सूल:-तत्थ पंचविहं नाणं, सुअं अभिणिबोहिअं।
__ ओहिणाणं च तइअं, मणणाणं च केवलं ॥१॥ छायाः-तत्र पञ्चविध ज्ञान, श्रुतमाभिनिबोधिकम् ।
अवधिज्ञानं च तृतीयं, मनोज्ञानं च केवलम् ॥१॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति (तत्य) ज्ञान के सम्बन्ध में (माणं) ज्ञान (पंचविहं) पाच प्रकार का है, वह यों है :---(मुअं) श्रुत (अमिणिबोझिं) मति (तइ) तीसरा (ओहिणाणं) अबधिज्ञान (च) और (मणणाणं) मनःपर्यवज्ञान (च) और पांचवां (केबल) केवलज्ञान है ।
भावार्थ:-हे आयें ! ज्ञान पाँच प्रकार का होता है, वे पांच प्रकार यों है :-(१) मतिज्ञान के द्वारा श्रवण करते रहने से पदार्थ का जो स्पष्ट Ji भेदाभेद आन पड़ता है यह अतमान' है । (२) पांचों इन्द्रियों के द्वारा जो |: शान होता है वह भतिज्ञान कहलाता है । (३) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि की
१ नंदीसूत्र में श्रुतज्ञान का दूसरा नम्बर है। परन्तु उत्तराध्ययन सूत्र में
श्रुतज्ञान को पहला नम्बर दिया गया है। इसका तात्पर्य यों है कि पांचों ज्ञानों में श्रुत-ज्ञान विशेष उपकारी है । इसलिए यहां श्रुतज्ञान को पहले ग्रहण किया है।