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आत्म शुद्धि के उपाय
वाद बोलने से, और इसी तरह अधर्म में प्रसन्नता रखने से और धर्म में अप्रसन्नता दिखाने से, दूसरों को ठगने के लिये कपटपूर्वक झूठ का व्यवहार करने से, और मिथ्यात्व रूप शल्य के द्वारा पीड़ित रहने से, अर्थात् कुदेव कुगुरु, कुधर्म के मानने से आदि इन्हीं अठारह प्रकार के पापों से जकड़ी हुई यह आत्मा नाना प्रकार के दुःख उठाती हुई, चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करती रहती है ।
मूलः --- अज्झवसाणनिमित्ते, आहारे वेयणापराधाते ।
फासे आणापाणू, सत्तविहं झिझए आउं ॥ १७॥ छाया:-- अध्यवसाननिमित्ते आहारः वेदना पराघातः । स्पर्श आनप्राणः सप्तविधं क्षियते आयु ।।१७।।
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अन्ययार्थ:- हे इन्द्रभूति ! ( आई ) आयु (सत्तविहं ) सात प्रकार से (झिझाए) टूटता है । (अज्झषसाणनिमित्ते ) भयात्मक अध्यवसाय और दण्ड लकड़ी कशा चाबुक शस्त्र आदि निमित्त (आहारे) अधिक आहार ( वेयणा ) शारीरिक वेदना (पराधाते ) खड्डे आदि में गिरने के निमित्त (फासे) सर्पादिक का स्पर्श (आणापाणू) उच्छ्वास निश्वास का रोकना आदि कारणों से आयु का क्षय होता है ।
भावार्थ:-- हे मायें ! सात कारणों से आयु अकाल में ही क्षीण होती है । वे यों हैं:- राग, स्नेह, भयपूर्वक अध्यवसाय के आने से दंड (लकड़ी) कशा ( चाबुक ) शस्त्र आदि के प्रयोग से अधिक भोजन या लेने से, नेत्र आदि की अधिक व्याधि होने से, खड्डे आदि में गिर जाने से, और उच्छ्वास निश्वास के रोक देने से ।
मूल:-जह मिउलेवालित्तं, गरुयं तुबं अहो वयइ एवं ।
आसवकयकम्मगुरू, जीवा वच्चति अहरगई ||१८||
छाया: - यथा मृल्लेपालिप्तं गुरु तुम्बं अधोव्रजत्येवं । आस्रवकायक मंगुरवो जीवा व्रजन्त्यधोगतिम् ॥१८॥