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आत्म शुद्धि के उपाय
मुल:-दसणविणए आवस्सएय, सीलव्वए निरइयारो।
खणलबतवच्चियाए, वेयावच्चे समाही य ।।१३।। छायाः-दर्शनविनय आवश्यक: शीलवतं निरतिचारं ।
क्षणलवस्तपस्त्यागः वयावृत्यं समाधिश्च ।। १३॥ अन्वयार्थ:-है इन्द्रभूति ! (सण, शुद्ध प्रद्धा रखता हो (विणए) बिनयो हो (आवस्सए) आवश्यक प्रतिक्रमण दोनों समय करता हो, (निरइयारो) दोषरहित (सीलब्जए) शील और व्रत को जो पालता हो, (खणलय) अच्छा ध्यान ध्याता हो अर्थात् सुपात्र को दान देने की भावना रखता हो (तव) तप करता हो (चियाए) त्याग करता हो, (वेयावच्चे) सेवा भाव रखता हो (य) और (समाही) स्वस्थचित्त में रहता हो ।
भावार्थ:--हे गौतम ! जो शुद्ध श्रद्धा का अवलम्बी हो, नम्रता ने जिसके हृदय में निवास कर लिया हो, दोनों समय-संध्या और सूबह अपने पापों की आलोचना रूप प्रतिक्रमण को जो करता हो, निर्दोष शील व्रत को जो पालता हो, आर्त रौद्र ध्यान को अपनी और माकने तक न देता हो, अनशन व्रप्त का जो प्रती हो, या नियमित रूप से कम खाता हो, मिष्टान्न आदि का परित्याग करता हो, आदि इन बारह प्रकार के तपों में से कोई भी तप जो करता हो, सुपात्र दान देता हो, जो सेवा भाव में अपना शरीर अर्पण कर चुका हो, और सदैव चिन्ता रहित जो रहता हो । मूलः -अप्पुव्वणाणगहणे, सुयभत्ती पचयणे पभावणया ।
एएहिं कारणेहि, तित्थयरत्तं लहइ जीओ ।।१४।। छाया:--अपूर्वज्ञानग्रहणं, श्रुतभक्तिः प्रवचनप्रभावनया।
एतैः कारणैस्तीर्थकरत्वं लभते जीवः ॥१४॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! जो (अप्युवणाणगहणे) अपूर्व ज्ञान को ग्रहण करता हो (सुयभत्ती) सूत्र शास्त्रों को आदर की दृष्टि से देखता हो, (पवयणे) निन्य प्रवचन की (पभाषणया) प्रभावना करता हो, (एएहिं) इन (कारणेहिं) सम्पूर्ण कारणों से (जीओ) जीव (तिरथयरत्त) तीर्घकरत्व को (लइह) प्राप्त कर लेता है।