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आत्म शुद्धि के उपाय छायाः-धृतिमतिश्च संवेगः प्रणिधि: सुविधिः संबर ।
आत्म दोषापसंहारः सर्वकामविरक्तता ।।९।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (धिईमई) अदीनवृत्ति से रहना, (संवेगे) संसार से विरक्त हो कर रहना, (पणिहि) कायादि के अशुभ योगों को रोकना, (सुविहि) सदाचार का सेवन करना। (संवरे) पापों के कारणों को रोकना, (अत्तदोसोबसंहारे) अपनी आत्मा के दोषों का संहार करना, (य) और (सधषकामविरत्तया) सर्व कामनाओ से विरत रहना । ___ भाषार्थ:-हे गौतम ! दीन-हीन वृत्ति से सदा विमुख रहना, संसार के विषयों से उदासीन हो कर मोक्ष की इच्छा को हृदय में धारण करना, मनअपन-काया के अशुभ व्यापारों को रोक रखना, सदाचार सेवन में रत रहना, हिंसा, झूठ, चोरी, संग, ममत्व के द्वारा आते हुए पापों को रोकना, आत्मा के दोषों को ढूंढ-कर संहार करना, और सब तरह की इच्छाओं से अलग रहना । मूल:--पच्चक्खाणे विउस्सग्गे, अप्पमादे लबालवे ।
ज्झाणसंवरजोगे य, उदए मारणतिए ॥१०॥ छाया:-प्रत्याख्यानं व्युत्सर्ग:, अप्रमादी लवालवः ।
ध्यानसंवर योगाश्च, उदये मारणान्तिके |॥१०॥ अग्ययाः हे इन्द्रभूति ! (पच्चरखाणे) त्यागों की वृद्धि करना (विउस्सग्गे) उपाधि से रहित होना, (अप्पमादे) प्रमाद रहित रहना (लवालवे) अनुष्ठान करते रहना (झाण) ध्यान करना (संवरजोगे) संवर का व्यापार करना, (य) और (भारणतिए) मारणांतिक कष्ट (उदए) उदय होने पर भी क्षोभ नहीं करता।
भावार्थ:-हे गौतम ! त्याग धर्म की वृद्धि करते रहना, उपाधि से रहित होना, गर्व का परित्याग करना, क्षणमात्र के लिए भी प्रमाद न करना, सदैव अनुष्ठान करते रहना, सिमान्तों के गंभीर आशयों पर विचार करते रहना, कर्मों के निरोष रूप संवर की प्राप्ति करना और मृत्यु भी यदि सामने आ खड़ी हो तम भी क्षोम न करना ।
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