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निग्रन्य-प्रवचन
भी (दधम्मया) धर्म में हड़ रहना (अपिस्सिओवहाणे) बिना किसी चाह के उपधान तप करना (सिक्खा) शिक्षा ग्रहण करना (य) और (निप्परिकम्मया) परीर की शुश्रूषा नहीं करना ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जानते में आ अजानते में किसी भी प्रकार दोषों का सेवन कर लिया हो, तो उसको अपने आचार्य के सम्मुख प्रकट करना और आचार्य उसके प्रायश्चित रूप में जो भी दण्ड दें उसे सहर्ष ग्रहण कर लेना, अपनी श्रेष्ठता बताने के लिए पुनः उस बात को दूसरों के सम्मुख नहीं कहना और अनेक आपदाओं के बादल क्यों न उमड़ आवै मगर धर्म से एक पर भी पीछे न हटना चाहिए । ऐहिक और पारलौकिक पोद्गलिक सुखों की इच्छा रहित उपधान तप उत करना, सूत्रार्थ ग्रहण रूप शिक्षा धारण करना, और कामभोगों के निमित्त शरीर की शुश्रूषा भूल कर भी नहीं करना चाहिये । मूल:- अण्णायया अलोभे य, तितिक्खा अज्जवे सुई।
सम्मदिट्टी समाही य, आयारे विणओवए ।।८t} छायाः- अज्ञातता अलोभश्च , तितिक्षा आर्जवः शुचिः ।
सम्यग्दृष्टिः समाधिश्च आचारोविनयोपेतः ।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (अण्णायया) दूसरों को कहे बिना ही तप करना (अलोभे) लोम नहीं करना (तितिक्ला) परीषहों को सहन करना (अज्जये) निष्कपट रहना (सुई) सस्य से शुचिता रखना (सम्मचिट्ठी) श्रद्धा को शुद्ध रखना (थ) और (समाही) स्वस्थापित रहना (आमारे) सदाचारी होकर कपट न करना (विणओवए) विनयी होकर कपट न करना ।
भावार्थ:-हे गौतम ! तप प्रत धारण करके यश के लिए दूसरों को न कहना, इच्छित वस्तु पाकर उस पर लोभ न करना, दंश-मशकादिकों का परिषह उत्पन्न हो तो उसे सहर्ष सहन करना, निष्कपटतापूर्वक अपना सारा व्यवहार रखना, सत्य संयम द्वारा शुचिता रखना, श्रद्धा' में विपरीतता न माने देना, स्वस्थचित्त हो कर अपना जीवन बिताना, आचारवान हो कर कपट न करना और बिनयी होना । मूलः-धिईमई य संवेगे, पणिहि सुविहि संबरे ।
अत्तदोसोवसंहारे, सव्वकामविरत्तया ॥६॥