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षट् द्रव्य निरूपण
मूलः - गइलक्यणो उ धम्मो, अम्मी जबली । भायणं सव्वदव्वाणं; नहं ओगाह लक्खणं ॥ १५ ॥ छाया:-- गतिलक्षणस्तु धर्मः अधर्मः स्थानलक्षण: । भाजनं सर्वद्रव्याणाम् नभोऽवगाहलक्षणम् ।। १५ ।।
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! ( गइल क्खणो) गमन करने में सहायता देने का लक्षण है जिसका, उसको (धम्मो ) धर्मास्तिकाय कहते हैं । (ठाणलक्षणो ) ठहरने में मदद देने का लक्षण है जिसका, उसको (अहम्मो ) अधर्मास्तिकाय कहते हैं। और (सव्वदव्वाणं ) सर्व द्रव्यों को (भामण ) आश्रय रूप (ओगाहलषखणं) अवकाश देने का लक्षण है जिसका, उसको (नह) आकाशस्तिकाय कहते हैं ।
भावार्थ :- हे गौतम! जो जीव और जड़ यों को गमन करने में सहाय्य - भूत हो उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं। और जो ठहरने में सहाय्यभूत हो उसे अधर्मास्तिकाय कहते है । और पांचों द्रव्यों को जो आधारभूत हो कर अवकाश दे उसे आकाशास्तिकाय कहते हैं ।
जीवो उवओगलक्खणी । सुहेण य दुहेण य ॥१६॥ छायाः - वर्त्तना लक्षण: कालो जीव उपयोगलक्षणः । ज्ञानेन दर्शनेन च सुखेन च दुःखेन च ॥१६॥
मूलः - वत्तणालक्खणो कालो; नाणेणं दंसणेणं च
अन्वयार्थ हे इन्द्रभूति ! ( वत्तणालक्खणी) वर्तना है लक्षण जिसका उसको (कालो) समय कहते हैं (उत्र ओगलवणो ) उपयोग लक्षण है जिसका उसको (जीव) आत्मा कहते हैं। उसकी पहचान (नाणेणं) ज्ञान (च) और (दंसणेणं) दर्शन (थ) और (सुद्देण ) सुख (य) और (दुहेण ) दुख के द्वारा होती है ।
भावार्थ :- हे शिष्य ! जीव और पुद्गल मात्र के पर्याय बदलने में जो सहायक होता है उसे काल कहते हैं । ज्ञानादि का एकांश या विशेषांश जिसमें हो वही जीवास्तिकाय है। जिसमें उपयोग अर्थात् ज्ञानादि न सम्पूर्ण ही है और न अंशमात्र भी है। वह जड़ पदार्थ है । क्योंकि जो आत्मा है, वह सुख, दुःख, ज्ञान, दर्शन का अनुभव करता है - इसी से इसे आत्मा कहा गया है और इन कारणों से ही आत्मा की पहचान मानी गई है ।