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निय-प्रवचन
छाया:-उदषिसहङ नाम्नां सप्ततिः कोटाकोटयः ।
मोहनीयस्योत्कृष्टा, अन्तर्मुहूर्ता जघन्यका ॥१८।। त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमा, उत्कर्षेण व्याख्याता। स्थितिस्तु आयु: कर्मणः, अन्तर्मुहुर्ता जघन्यका ।।१६।। उदधिसदृङ नाम्नां, विंशतिः कोटाबोटयः ।
नामगोत्रयोरुत्कृष्टा अष्ट मुहूर्ता जघन्यका ॥२०॥ अन्वयाः-हे इन्द्रभूति ! (मोहणिज्जस्स) मोहनीय कर्म की (उक्कोसा) उस्कृष्ट अर्थात् अधिक से अधिक स्थिति (सर) सत्तर (कोडिकोडीओ) कोटा कोटि (उदहीसरिसनामाणे) सागरोपम है । और (अहणिया) जयन्य (अन्तोमुहत्त) अन्तर्मुहूर्त और (लाउकम्मस्स) आयुष्य कर्म की (उक्कोसेण) उत्कृष्ट स्थिति (तेत्तीसं सागरोदम) तेतीस सागरोपम की है । और (जहणिया) जघन्य (अन्तोमुहत्तं) अन्तर्मुहुर्त की और इसी प्रकार (नामगोताणं) नाम कर्म और गोत्र कर्म की (उकोसा) उत्कृष्ट स्थिति (वीसई) बीस (कोडिकोडिओ) फोटाकोटि (उदहीसरिसनामाणं) सागरोपम की है । और (जहणिया) जघन्य (अट्ठ) आठ (मुहत्ता) मुहूर्त की (ठिई) स्थिति (विआह्यिा ) कही है।
भावार्थ:-हे गौतम ! मोहनीय फर्म की ज्यादा से ज्यादा स्थिति सत्तर कोडाकोड़ सागरोपम की है । और जघन्य (कम से कम) स्थिति अन्तर्महत की है। आयुष्य कर्म को उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की और जघन्य अन्तमहतं की है। नाम कर्म एवं गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाफोड़ सागरोपम की है और जघन्य आठ मुहूर्त की कही है । मूलः–एगया देवलोएसु, नरएसु वि एगया ।
एगया आसुरं कायं, अहाकम्मेहिं गच्छइ ।।२१।। छायाः- एकदाः देवलोकेषु नरकेष्वेकदा।
एकदा आसुरं कायं, यथा कर्मभिर्गच्छति ।।२१।। अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (अहाकम्मेह) जैसे कर्म किये हैं, उनके अनुसार आत्मा (एगया) कमी तो (देवलोएसु) देवलोक में (एगया) कमी (नरएस वि)