________________
धर्म-स्वरूप वर्णन
३३
कही गयी है । चालीस से पचास वर्ष तक इच्छित अर्थ का सम्पादन करने के लिये तथा कुटम्न वृद्धि के लिए बुद्धि का नव प्रयोग करता है, इसी से पांचवीं प्रज्ञावस्था है । ५० से ६० वर्ष तक जिसमें इन्द्रियजन्य विषय ग्रहण करने में कुछ हीनता आजाती है इसीलिए छपी हायनी अवस्था है। साठ से सत्तर वर्ष तक बार-बार कफ निकलने, थूकने और खांसने का प्रपंच बढ़ जाता है। इसी से सातवीं प्रपंचायस्था है। शरीर पर सलवट पड़ जाते हैं और शरीर भी कुछ झुक जाता है इसी रो सत्तर मे अस्सी वर्ष तक की अवस्था को प्राग्मार अवस्था कहते है । नौवीं अस्सी से नवे वर्ष तक मुम्मुखी अवस्था में जीब जरारूप राक्षसी से पूर्ण रूप से घिर जाता है । या तो इसी अवस्था में परलोक वासी बन बैठता है और यदि जीवित रहा तो एक मृतक के समान ही है। नये से सौ वर्ष तक प्रायः दिन-रात सोते रहना ही अच्छा लगता है। इसलिए दशवी शायनी अवस्था कहो जाती है । मूल:--माणुस्सं विग्गहं लधु, सुई धम्मस्स दुल्लहा ।
जं सोच्चा पडिबज्जति, तवं खंतिमहिसयं ॥४॥ छापा:-मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा श्रुति धर्मस्य दुर्लभा ।
यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तप: क्षाम्तिमहिंस्रताम् ।।४।। मन्वयार्थः हे इन्द्रभूति ! (माणुस्स) मनुष्य के (दिग्गह) शरीर को (सध) प्राप्त कर (धम्मस्स) धर्म का (सई) श्रवण करना (दुस्लहा) दुर्लभ है। (ज) जिसको (सोच्चा) सुनने से (तबं) तप करने की (खंतिमहिंसर्य) तथा क्षमा और अहिंसा के पालन करने की इच्छा उत्पन्न होती है । ___ भावार्थ:-हे गौतम ! दुर्लभ मानव देह को पा भी लिया तो मी धार्मिक तत्त्व का श्रवण करना महान् दुर्लभ है। जिसके सुनने से तप, क्षमा, अहिंसा बादि करने की प्रबल इच्छा जाग उठती है। मुल-धम्मो मंगलमुक्कि, अहिंसा सजमो तबो।
देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥५॥ थायाः--बर्मो मङ्गलमुत्कृष्ट, अहिंसा संयमस्तपः।
देवा अपि तं नमस्यन्ति, यस्य धर्म सदा मनः॥५।।