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निग्रन्थ-प्रवचन
को (जाइ) जाता है । (व्य) जैसे (पावए) अग्नि में (घयसित्ति) घी सींचने पर अग्नि प्रदीप्त होती है। ऐसे ही आत्मा भी बलवती होती है ।
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भावार्थ:---- हे गौतम! स्वभाव को सरल रखने से आत्मा कषायादि से रहित होकर (शुद्ध) निर्मल हो जाती है । उस शुद्धात्मा के धर्म की भी स्थिरता रहती है। जिससे उसकी आत्मा जीवन मुक्त हो जाती है। जैसे अग्नि में घी डालने से वह चमक उठती है उसी तरह आत्मा के कषायादिक आवरण दूर हो जाने से वह भी अपने केवलज्ञान आदि गुणों से देदीप्यमान हो उठती है ।
पाणिणं ।
मूल:- जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण धम्मो दीवो पट्टा य, गई छायाः - जरामरणवेगेन वाह्यमानानाम्
सरणमुत्तमं ॥ १३॥ प्राणिनाम् । धर्मो द्वीपः प्रतिष्ठा च गतिः शरणमुत्तमम् ||१३|| अग्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! ( जरामरणवेगेणं) जरा मृत्यु रूप जल के वेग से ( बुज्झमाषाण) डूबते हुए (पाणिण ) प्राणियों को (धम्मो ) धर्म (पट्टा ) निश्चल आधारभूत ( गई ) स्थान (य) और (उत्तमं ) प्रधान ( सरणं) शरणरूप ( दीयो ) द्वीप है ।
भावार्थ : हे गौतम ! जन्म, जरा, मृत्यु रूप जल के प्रवाह में डूबते हुए प्राणियों को मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला धर्म ही निश्चल आधारभूत स्थान और उत्तम शरण रूप एक टापू के समान है ।
मूलः -- एस धम्मे धुवे णितिए, सासए जिणदेसिए ।
सिद्धा सिज्झति चाणेणं, सिज्झिसंति तहावरे || १४ ||
छाया: - ऐषो धर्मो ध्रुवो नित्यः शाश्वतो जिनदेशितः ।
सिद्धाः सिद्धयन्ति चानेन, सेत्स्यन्ति तथाऽपरे ॥ १४॥
अन्धयार्थः - हे इन्द्रभूति | ( जिणदेसिए) तीर्थंकरों के द्वारा कहा हुआ ( एस ) यह (धम्मे ) धर्म (धुवे) व है (पितिए) नित्य है ( सासए) ज्ञात है (अ) इस धर्म के द्वारा अनंत जीव भूतकाल में सिद्ध हुए हैं (च) और वर्तमान काल में (सिजांति) सिद्ध हो रहे हैं (तहा) उसी तरह (अवरे ) भविष्यत काल में भी (सिमिति) सिद्ध होंगे।