________________
धर्म-स्वरूप वर्णन
३७
___अन्वयार्थः हे इन्द्रभूति ! (जा जा) जो जो (रयणी) रात्रि विश्वर) जाती है (मा) बह रात्रि (न) नहीं (पडिनिअत्तइ) लोट कर आती है। अतः (अहम्म) अधर्म (कुणमाणस्स) करने वाले को (राइमो) रात्रियों (अफला) निष्फल (जंति) जाती है।
भावार्थ:-हे मौतम ! जो जो रात और दिन बीत रहे हैं वह समय पीछे लोट कर नहीं आ सकता। अतः ऐसे अमुल्य समय में मानव शरीर पाकर के भी जो अधर्म करता है, तो उस अधर्म करने वाले का समय निष्फल जाता है। मूलः--जा जा बच्चइ रयणी, न सा पडिनिअत्तइ ।
धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जति राइओ ॥११॥ छाया:--या या व्रजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्तते । ।
धर्म च कुर्वाणस्य, सफला यान्ति रात्रयः ।।११।। अम्पयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जा जा) जो जो (रयणी) रात्रि (बच्चइ) निकलती है (सा) वह (म) नहीं (पलिनिअत्तइ) लौट कर आती है । अतः (धम्म च) धर्म (कुणमाणस्स) करने वाले की (राइओ) रानियाँ (सफला) सफल (जति) जाती हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! रात और दिन का जो सगय जा रहा है वह पुनः लौट कर किसी भी तरह नहीं आ सकता । ऐसा समझ कर जो धार्मिक जीवन बिताते हैं उनका समय (जीवन) सफल है । मूल:--सोही उज्जुअभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ ।
णिव्वाणं परम जाइ, धयसित्ति ब्व पावए ॥१२॥ छायाः-शुद्धि ऋजुभूतस्य, धर्मः शुद्धस्य तिष्ठति ।
निर्वाणं परमं याति, घृतसिक्त इव पावकः ।।१२।। अन्वयार्थ:-है इन्द्रभूति ! (उज्जुअभूयस्य) सरल स्वमावी का हृदय (सोही) शुद्ध होता है । उस (सुद्धस्स) शुद्ध हृदय वाले के पास (धम्मो) धर्म (चिट्ठइ) स्थिरता से रहता है। जिससे वह (परम) प्रधान (णिब्याण) मोक्ष