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धर्म स्वरूप वर्णन
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मूला--एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो ।
जेण कित्ति सुअं सिग्छ, नीसेसं चाभिगच्छइ ।।७।। छायाः-एवं धर्मस्य बिनयो मूलं परमस्तस्य मोक्षः ।
येन वीति श्रुतं शीघ्र निश्शेष चाभिगच्छति ॥७॥ अग्यमार्यः- - हे इन्द्रभूति ! (एव) इसी प्रकार (धम्मस्स) धर्म की (परमो) मुरूप (मूलं) जड़ (विणओ) विनय है। फिर उससे क्रमशः आगे (से) वह (मुबलो) मुक्ति है। इसलिए पहले विनय आदरणीय है। (जेण) जिससे वह (कित्ति) कीति को (च) और (नीसेस) सम्पूर्ण (सुअं) श्रुत ज्ञान को (सिग्घं) शीन (अभिगच्छइ) प्राप्त करता है।
भावार्थ:- गौना ! जिस प्रकार म अपनी लह के द्वारा कमपर्वक रस वाला होता है। उसी प्रकार धर्म की जड़ विनय है । विनय के पश्चात ही स्वर्ग, पाक्नध्यान, अपकवेणी आदि उत्तरोत्तर गुणों के साथ रसवान वृक्ष के समान
आत्मा मुक्ति रूपी रस को प्राप्त कर लेती है। जब मूल ही नहीं है तो शाखा पत्ते फूल फल रस कहाँ से होंगे ? ऐसे ही जब विनय धर्म रूप मूल ही नहीं हो तो मुक्ति का मिलना महान् कठिन है। हे गौतम ! सबों के लिए विनय आदरणीय है। विनय से कीति फैलती है और विनयवान् शीघ्र ही सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को प्राप्त कर लेता है । मूलः-अणुसट्टपि बहुविह,
मिच्छ दिट्ठिया जे नरा अबुद्धिया । बद्धनिकाइयकामा,
सुणंति धम्म न पर करति ॥८॥ छायाः-अनुशिष्टमपि बहुविधं,
मिथ्यादृष्टयो ये ना अबुद्धयः । बद्धनिकाचितकर्माण:
शृण्वन्ति' धर्म न परं कुर्वन्ति ॥1