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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(तृतीय अध्याय) धर्म-स्वरूप वर्णन
(श्री भगवानुवाच) मूलः कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुब्बी कयाइ उ ।
जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययंति मणुस्सयं ॥१॥ छायाः-कर्मणां तु प्रहाण्या, आनुपूर्ध्या कदापि तु ।
जीवा शुद्धिमनुप्राप्ताः, आददते मनुष्यताम् ।।१।। अग्धयार्य:-हे इन्द्रभूति ! (आणुपुष्वी) अनुक्रम से (कम्माण) कर्मों की (पहाणाए) न्यूनता होने पर (कयाइ उ) कमी (जीवा) जीव (सोहिमणुष्पत्ता) गुसता प्राप्त कर (मणुस्सयं) मनुष्यत्व को (आयर्गति) प्राप्त होते हैं । ___ भावार्थ:-हे गौतम ! अब यह जीव अनेक जन्मों में दुःख सहन करता हुआ धीरे-धीरे मनुष्य जन्म के बाधक कर्मों को नष्ट कर लेता है। तब कहीं कमों के मार से हलका होकर मनुष्य जन्म को प्राप्त करता है। मूल:--मायाहिं सिवस्वाहि, जे नरा गिहिसुब्बया ।
उविति माणुस जोणि, कम्मसच्चा हु पाणिणो ।।२।। छायाः-विमात्राभि: शिक्षाभिः, ये नरा गृहि-सुव्रताः ।
उपयान्ति मानुष्यं योनि, कर्मसत्या हि प्राणिनः ।।२।। शम्बया: है इन्द्रभूति ! (जे) जो (नरा) मनुष्य (धेमायाहि) विविध प्रकार की (सिक्खाह) शिक्षाओं के साथ (गिहिसुःखया) गृहस्थावास में