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निग्रंन्ध-प्रवचन
सुव्रतों 'अणुव्रतों' का आचरण करने वाले हों, वे मनुष्य किर (माणसं) मनुष्य (जोणि) योनि को (उविति) प्राप्त होते हैं । (ह) क्योंकि (पाणिणो) प्राणी (कम्मसच्चा) सत्य कर्म करने वाला है, अर्थात जैसे कर्म वह करता है वैसी ही उसकी गति होती है।
भावार्थ:-हे गौसम ! जो नाना प्रकार के त्याग धर्म को धारण करता है, प्रत्येक के साथ निष्कपट व्यवहार करता है, वही मनुष्य पुनः मनुष्य भव को प्राप्त हो सकता है। क्योंकि जैसे कर्म वह करता है, उसी के अनुसार गति मिलती है। मूल:--बाला किड्डा य मंदा य, बला पन्ना य हायणी ।
पवंच्चा पन्भारा य, मुम्मुही सायणी तहा ।।३।। छाया:-बाला क्रीडा च मन्दा च, बला प्रज्ञा च हायनी ।
प्रपञ्चा प्राग्भारा च मुन्मुखी शायिनी तथा ||३|| अन्वयाप:-हे इन्द्रभूति ! मनुष्य की दश अवस्थाएं हैं। प्रथम (बाला) बाल्यावस्था (य) और दूसरी (किड्डा) क्रीडावस्था (मंदा) तीसरी मन्दावस्था (बला) चौथी बलावस्था (य) और (पन्ना) पाँचवी प्रज्ञावस्था छठी (हायणी) हायनी अवस्था तथा सातनी (पवंचा) प्रपंचावस्था (य) और आरक्षी (पारा) प्राम्मारावस्था । नौवीं (मुम्मूही) मुम्मुखी अवस्था (सहा) तथा मनुष्य की दशी अवस्था (सायणी) शायनी अवस्था होती है।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिस समय मनुष्य की जितनी आयु हो उतनी आयु को दश भागों में बाँटने से दश अवस्थाएं होती है । जैसे सौ वर्ष की आयु हो तो दश वर्षों की एक अवस्था, यो दश-दहा वर्षों की दश अवस्थाएं है। प्रथम बाल्यावस्था है कि जिस में खाना, पीना, कमाना, रूप आदि सुख-दुःख का प्रायः मान नहीं रहता है। दश वर्ष से बीस वर्ष तक खेलने-कूदने की प्रायः धून रहती है, इसलिए दूसरी अवस्था का नाम क्रीड़ावस्था है। बीस वर्ष से तीस वर्ष तक अपने गृह में जो काम-मोगों की सामग्री जुटी हुई है उसी को भोगते रहना और नवीन अर्य सम्पादन करने में प्रायः बुद्धि की मन्दता रहती है, इसी से तीसरी मन्दाबस्था है। तीस से चालीस वर्ष पर्यंत यदि वह स्वस्थ रहे सो उस हालत में वह कुछ बली दिखलाई देता है, इसी से चौथी बलावस्था