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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
लोक और परलोक में महान् दुःख उठाता है। क्योंकि किये हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता है । मूल:-संसारमावण्ण परस्स अट्ठा,
साहारण जप करे कम्म । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले,
न बंधवा बंधवयं उविति ॥२३।। छायाः-संसारमापन्नः परस्याय,
साधारणं यच्च करोति कम। कर्मणरते तस्य तु वेदकाले,
न बान्धवा बान्धवत्वमुपयान्ति ॥२३॥
१ किसी समय कई एक चोर चोरी करने जा रहे थे। उन में एक सुधार
मी शामिल हो गया। वे चोर एक नगर में एक धनाड्य सेठ के यहाँ पहुँचे । वहां उन्होंने सेंध लगाई। संघ लगाते-लगाते दीवार में काठ का एक पटिया' दिख पड़ा, तब दे चोर साथ के उस सुथार से बोले कि अब तुम्हारी बारी है, पटिया काटना तुम्हारा काम है । अतः सुथार अपने शस्त्रों द्वारा काठ के पटिये को काटने लगा। अपनी कारीगरी दिखाने के लिए सेंध के वेदों में चारों ओर तीखे-तीखे फंगरे उसने बना दिये । फिर बह खुद चोरी करने के लिए अन्दर घुसा । ज्योंही उसने अन्दर पैर रखा, त्यों ही मकान मालिक ने उसका पैर पकड़ लिया। सुधार चिल्लाया, दौड़ो-दौड़ो, और बोला मकान मालिक मकान मा"." लिक ! मेरे पांव छुड़ाओ। यह सुनते ही चोर सपटे, और लगे सर पकड़ कर खींचने । सुथार बेचारा बड़े ही अमेले में पड़ गया । मीतर और बाहर दोनों तरफ से जोरों की खींचातानी होने लगी । बस, फिर क्या था ? जैसे बीज उसने बोये फसल भी वैसी ही उसे काटनी पड़ी। उसके निज के बनाये हुए संघ के पैने-पने कंगूरों ने ही उसके प्राणों का अंत कर दिया। आत्मा के लिए भी यही बात लागू होती है । बह भी अपने ही अशुम कर्मों के द्वारा लोक और परलोक में महान् कष्टों के झकझोरों में पड़ता है।