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झम निरूपण
छाया:--ज्ञानस्यावरणीयं, दर्शनावरणं तथा।
वेदनीयं तथा मोहं, आयु: कर्म तथैव च ॥२॥ नामकर्म च सोनं च, अन्त रायं तथैव च ।
एवमेतानि कमाणि, अटो तु समासतः ॥३:! अन्वयार्थ: हे इन्द्रभूति ! (नाणस्सावरणिज्ज) ज्ञानावरणीय (तहा) तथा (दसणावरणं) दर्शनावरणीय (तहा) तथा (वेयणिज्ज) वेदनीय (मोह) मोहनीय (तथैव) और (आउकम्म) आयुष्कर्म (च) और (नामकम्म) नाम कर्म (च)
और (गोयं) गोत्र कम (य) और (तहेव) दैसे ही (अन्तरायं) अन्तराय कर्म (एघमेग्राइ) इस प्रकार ये (कम्माइं) कर्म (अट्ठव) आठ ही (समासओ) संक्षेप से ज्ञानी जनों ने कहे हैं । (उ) पादपूर्ति अर्थ में ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिसके द्वारा बुद्धि एवं ज्ञान की न्यूनता हो, अर्थात् ज्ञान वृद्धि में बाधा रूप जो हो उसे ज्ञानावरणीय अथति ज्ञान शक्ति को दबाने वाला कर्म कहते हैं । पदाचं को साक्षात्कार करने में जो बाधा डाले, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहा गया है। सम्यवत्व और चारित्र को जो बिगाड़े, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं । जन्म-मरण में जो सहाय्यभूत हो वह आयुष्कर्म माना गया है। जो शरीर आदि के निर्माण का कारण हो वह नामकर्म है। जीव को जो लोकप्रतिष्ठित या लोकनिध कूलों में उत्पन्न करने का कारण हो वह गोत्रकर्म कहलाता है । जीव की अनन्त शक्ति प्रकट होने में जो बाधक रूप हो वह अन्तराय कर्म कहलाता है । इस प्रकार ये आठों ही कमं इस जीव को चौरासी के चक्कर में डाल रहे हैं। मूलः-नाणावरण पंचविहं, सुयं अभिणिबोहियं ।
ओहिनाणं च तइयं, मणनाणं च केवलं ॥४॥ छाया:- झानावरणं पञ्चविधं, श्रुतमाभिनिवोधिकम् ।
अवधिज्ञानं च तृतीयं, मनोज्ञानं च केवलम् ॥४॥ अम्बयार्थ:-हे इंद्रभूति ! (माणावरण) झानावरणीय कर्म (पंचविह) पांच प्रकार का है। (सुर्य) श्रुत-शानावरणीय (आभिणिबोयिं) मतिज्ञानावरणीय (तक्ष्य) तीसरा (ओहिनाणं) अवधिज्ञानादरणीय (च) और (मणनाणं) मनः पर्यय ज्ञानावरणीय (च) और (केवलं) केवल ज्ञानावरणीय ।