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कर्म निरूपण
कर्म तु
कषायजम् ।
छाया: - षोडशविधभेदेन सप्तविधं नवविधं वा कर्म च नोकषायजम् ॥११॥
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अम्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! ( कसायजं ) क्रोषादिक रूप से उत्पन्न होने वाला (कम्मं लु) कर्म तो भएन) भेदों करके ( सोलसविह) सोलह प्रकार का है। (च) और ( नोकसायर्ज) हास्यादि से उत्पन्न होने वाला जो (कम्मं ) कर्म है वह ( सत्तविहं ) सात प्रकार का (वा) अथवा ( नवविहं) नौ प्रकार का माना गया है ।
भावार्थ :- हे गौतम! क्रोधादि से उत्पन्न होने वाले कर्म के सोलह भेद हैं । मनन्तानुबन्धी कोष, मान, माया, लोभ, यों प्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन के चार-चार भेदों के साथ इसके सोलह भेद हो जाते हैं और नोकषाय से उत्पन्न होने वाले कर्म के सात अथवा नो भेद कहे गये हैं । ये यों हैं - हास्य, रति, अरति, मध, शोक, जुगुप्सा और वेद यों सात भेद होते हैं और वेद के उत्तरभेद (स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद) लेने से नौ भेद हो जाते हैं । अत्यन्त क्रोध, मान, माया और लोभ करने से तथा मिथ्या श्रद्धा में रत रहने से और अती रहने से मोहनीय कर्म का बंध होता है ।
हे गौतम ! अब हम आयुष्यकर्म का स्वरूप बतलायेंगे ।
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मूलः - नेरइयतिरिक्खाउं मणुस्साउं तहेव य । देवाउअं चउत्थं तु, आउकम्मं चउन्विहं ॥ १२ ॥ छाया: - नरयिकतिर्यगायुः मनुष्यायुस्तथैव च । देवायुश्चतुर्थं तु आयुः कर्म चतुविधम् ||१२||
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! ( आउकम्मं ) आयुष्य कर्म ( चउब्बिह) चार प्रकार का है (नेरइयतिरिक्खा उं) नरकायुष्य तिर्यंचायुष्य ( तहेब) से हो ( मणुस्सा) मनुष्यायुष्य (य) और (चवत्थं तु) चौथा ( देवा उनं ) देवायुष्य है । भावार्थ:- हे गौतम! आत्मा को नियत समय तक एक ही शरीर में रोक रखने वाले कर्म को आयुष्य कर्म कहते हैं । यह आयुष्य कर्म चार प्रकार का है - ( १ ) नरक योनि में रखने वाला नरकायुष्य, (२) तिच योनि में रखने वाला तिचायुष्य, (३) मनुष्य योनि में रखने वाला मनुष्यायुष्य और (४) देव योनि में रखने वाला देवायुष्य कहलाता है ।