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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
तक उस जीव के मोक्ष के सान्निध्यकारी क्षायिक गुण को रोक रखता है । और दूसरा मिथ्यात्वमोहनीय है। इसके उदयकाल में जीव सत्य को असत्य और असत्य को सत्य समझता है। और इसीलिए वह जीव चौरासी का अन्त नहीं पा सकता | चौदहवें गुणस्थान के बाद ही जीव की मुक्ति होती है। पर यह मिथ्यात्वमोहनीय फर्म जीव को दूसरे गुणस्थान पर भी पैर नहीं रखने देता । तब फिर तीसरे और चौथे गणस्थान की तो बात ही निराली है। इसका तीसरा भेद सममिथ्यात्वमोहनीय है। इसके उदयकाल में जीव सत्य-असत्य दोनों को बराबर समझता है। जिससे हे गौतम ! यह आत्मा न तो रामदृष्टि की श्रेणी में है और न पूर्ण रूप से मिथ्यात्वी ही है । अर्थात् यह कर्म जीव को तीसरे गुणस्थान के ऊपर देखने तक का भी मौका नहीं देता है। हे गौतम ! अब हम चारित्रमोहनीय के भेद कहते हैं, सो सुनो। मूलः-चरितमोहणं कम, दविह तं विनादि ।
कसायमोहणिज्जं तु, नोकसायं तहेव य ॥१०॥ छाया:--चारित्रमोहनं कर्म द्विविधं तद् ब्याख्यातम् ।
कषायमोहनीयं तु, नोकषायं तथैव च ॥१०॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (चरितमोहण) चारित्रमोहनीय (कम्म) कर्म (स) वह (दुविह) दो प्रकार का (विआहियं) कहा गया है । (कसायमोहणिज्ज) क्रोधादि रूप भोगने में आवे यह (य) और (तहेब) वैसे ही (नोकसाय) क्रोधादि के सहचारी हास्यादिक के रूप में जो अनुभव में आवे ।
भावार्थ:-हे गौतम ! संसार के सम्पूर्ण वैभव को स्यागना चारित्र धर्म कहलाता है, उस चारित्र के अंगीकार करने में जो रोड़ा अटकाता है उसे चारित्र मोहनीय कहते हैं। यह कर्म दो प्रकार का है। एक तो क्रोधादि रूप में अनभव में माता है । अर्थात् हसना, भोगों में आनन्द मानना, धर्म में नाराजी आदि होना यह इस क्रम का उदय है ।
मूल:--सोलसविहभेएणं, कम तु कसायज ।
सत्तविहं, नवविहं वा, कम्मं च नोकसायज ॥११||