________________
१६
निर्यय-प्रवचन
उसे असत्यवादी कह कर जो दर्शन के साथ द्वेष भाव करता है । ( ६ ) इसी प्रकार चक्षुदर्शनीय अवधिदर्शनीय एवं केवलदर्शनीय के साथ जो ठण्ठा करता है ।
P
मूलः -- वेयणीयं पि दुविहं, सायमसायं च आहियं । सायरस उ बहू भैया, एमेव आसायस्स वि ॥७॥ छाया:- वेदनीयमपि च द्विविधं सातमसातं चाख्यातम् ।
सातस्य तु बहवो भेदा, एवमेवासातस्यापि ॥७॥
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभृति ! (वेयणीयं पि) वेदनीय कर्म भी (सायमसायं च ) साता और असाता (दुबि) यों दो प्रकार का ( आहियं ) कहा गया है । (सायस्स) साता के ( उ ) तो (बहू) बहुत से ( भैया ) भेव हैं। ( एमेच आसायस्स वि) इसी प्रकार असातावेदनीय के भी अनेक भेद हैं ।
भावार्थ:- हे गौतम! फुंसी, फोड़े, ज्वर, नेत्रशूल आदि अन्य तथा सब शारीरिक और मानसिक वेदना असातावेदनीय कर्म के फल हैं। इसी तरह निरोग रहना, चिन्ता, फिक्र कुछ भी नहीं होना ये सब शारीरिक और मानसिक सुख सातावेदनीय कर्म के फल हैं । हे गौतम! यह जीव साता और असाता वेदनीय कर्मों को किन-किन कारणों से बांध लेता है, सो अब सुनो-धन सम्पत्ति आदि ऐहिक सुख प्राप्ति होने का कारण सातावेदनीय का बंधन है । यह साता वेदनीय बन्धन इस प्रकार बँधता है दो इन्द्रिय वाले लट गिण्ढोरे आदि; तीन इन्द्रिय वाले मकोड़े, चींटियाँ, जूं आदि; चार इन्द्रिय वाले मक्खी, मच्छर, मोरे आदि पाँच इन्द्रिय वाले हाथी, घोड़े, बैल, ऊँट, गाय, बकरी आदि तथा वनस्पति स्थित जीव और पृथ्वी, पानी, याग, वायु इन जीवों को किसी प्रकार से कष्ट और शोक नहीं पहुँचाने से एवं इनको सुराने तथा अश्रुपात न कराने से, लात-घूंसा आदि से न पोटने से परितापना न देने से इनका विनाश न करने से, सातावेदनीय का बंध होता है ।
2
-
शारीरिक और मानसिक जो दुःख होता है, वह असातावेदनीय कर्म के उदय के कारणों से होता है। वे कारण यों हैं प्राण, भूत, जीव और सत्व इस चारों ही प्रकार के जीवों को दुःख देने से, फिक्र उत्पन्न कराने से, शुराने से, अनुपात करने से पीटने से, परिताप व कष्ट उत्पन्न कराने से असातावेदनीय का बंध होता है।