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कर्म निरूपण
हे गौतम ! शुभ अशुभ नाम कर्म कसे बंधता है सो सुनो:- मानसिक, वाचिक और कायिक कृत्य की सरलता रखने से और किसी के साथ किसी भी प्रकार का वर विरोध न करने व न रखने से शुभनाम कर्म बंधता है। शुमनाम कर्म के बंधन से विपरीत बर्ताव के करने से अशुभ नाम कर्म बंधता है ।
हे गौतम ! अब हम आगे गोत्र कर्म का स्वरूप बतलावेंगे ।
मूलः -गोयकम्मं तु दुविह, उच्च नीच आहिअं ।
उच्च अट्टविहं होइ, एवं नीअं वि आहि ।।१४।। छायाः-गोत्रकर्म तु द्विविधं, उच्च नीचं चाख्यातम् ।
उच्चमष्टविधं भवति, एवं नीचमप्याख्यातम् ॥१४॥
अम्बयाधः-हे इन्द्रभूति ! (गोयकम्म तु) गोत्र कर्म (दुविह) दो प्रकार का (आहिम) कहा गया है। (उच्च) उच्च गोत्र कर्म (च) और (नी) नीच गोत्र कर्म (उच्च) उच्च गोत्र कर्म (अट्ठविह) आठ प्रकार को (होइ) है {नी वि) नीच गोत्र कर्म भी (एवं) इसी तरह आठ प्रकार का होता है ऐसा (माहि) कहा गया है।
भावार्थ-हे गौतम ! उच्च तथा नीच जाति आदि मिलने में जो कारणभूत हो उसे गोत्र कर्म कहते हैं। यह गोत्र कर्म ऊँच, नीच में विभक्त होकर आठ प्रकार का होता है । ऊँच जाति और ऊँचे कुल में जन्म लेना, बलवान होना, सुन्दराकार होना, तपवान् होना, प्रत्येक व्यवहार में अर्थ प्राप्ति का होना, विद्वान् होना, ऐश्वर्यवान होना ये सब ऊँचे गोत्र के फल है । और इन सब बातों के विपरीत जो कुछ है उसे नीष गोत्र कर्म का फल समझो।।
है गौतम ! वह ऊँच नीच गोत्र कर्म इस प्रकार से बँधता है । स्वकीय, माता के वंश का, पिता के वंश का, ताकत का, रूप का, तप का, विद्वत्ता का और सुलभता से लाभ होने का घमण्ड न करने से ऊंच गोत्र कर्म का बंध होता है। और इसके विपरीत अभिमान करने से नीच गोत्र का बंध होता है । हे गौतम [ अब अन्तराम कर्म का स्वरूप बतलाते हैं।