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निर्गन्थ-प्रवचन
मूल:--सबंधयारउज्जोओ, पहा छायाऽऽतवे इ वा।
वण्णरसगंधफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥१७॥ छाया:-- शब्दोऽधकार उद्योतःप्रभाच्छायाऽऽतप इति वा ।
वर्णरसगन्धस्पर्शा: पुद्गलानाञ्च लक्षणम् ।।१७।। अन्वयार्थः---हे इन्द्रभूति ! (सइंधमार) शब्द अन्धकार (उज्जोओ) प्रकाश (पहा) प्रभा (छायालवेइ) छाया, धूप आदि ये (वा) अथवा (वष्णरसगंधफासा)
, बा, गन्ध, २५शाद को पस) शुद्लों का (लखणं) लक्षण कहा है। (तु) पाद पूर्ति ।
भावार्थ:-हे गौतम ! शब्द, अन्धकार, रत्नादिक का प्रकाश, चन्द्रादिक की काति, शीतलता, छाया, धूप आदि ये सब और पौधों वर्णादिक, गन्ध, पांचों रसादिक और आठों स्पादि से पुद्गल जाने जाते है । मूलः-गुणाणमासओ दव्वं, एगदबस्सिया गुणा ।
लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे ।।१८।। छाया:-गुणानामाश्रयो द्रव्यं, एकद्रव्याश्रिता गुणाः ।
लक्षणं पर्यवाणां तु उभयोराश्रिता भवन्ति ।।१८।। अन्वयार्थः-है इन्द्र भूति ! (गुणाणं) रूपादि गुणों का (आसओ) आश्रय जो है वह (दग्वं) द्रव्य है । और जो (एगदम्वस्सिया) एक द्रश्य आश्रित रहते आये हैं वे (गुणा) गुण है (तु) और (उमओ) दोनों के (अस्सिया) आश्रित (मये) हो, वह (पज्जवाणं) पर्यायों का (लक्खण) लक्षण है।
भावार्थ:-हे गौतम ! रूपादि गुणों का जो आश्रय हो, उसको द्रव्य कहते हैं । और द्रव्य के आश्रित रहने वाले रूप, रस आदि से सब गुण कहलाते हैं । और द्रव्य तथा गुण इन दोनों के आश्रित जो होता है, अर्थात् द्रव्य के अन्दर तथा गणों के अन्दर जो पाया जाय वह पर्याय कहलाता है । अर्थात् गुण द्रव्य में ही रहता है किन्तु पर्याय द्रष्य और गुण दोनों में रहती है। यही गुण और पर्याय में अन्तर है। मूलः-एगत्तं च पुहत्त च, संखा संठाणमेव य ।
संजोगा य विभागा य, पज्जवाणं तु लक्खणं ।।१६।।