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षट् द्रव्य निरूपण
( नाविओ) नाविक के तुल्य बैठ कर तिरनेवाला है । ( बुम्बइ ) ऐसा कहा गया है | अतः ( जं) इस संसार समुद्र को (महेसियो) ज्ञानी जन (तरंति) तिरते हैं ।
भावार्थ :- हे गौतम! इस संसार रूप समुद्र के परले पर जाने के लिए यह शरीर नौका के समान है जिस में बैठ कर आत्मा नाविक रूप हो कर संसार-समुद्र को पार करता हूँ
चरितं च तवरे तहा । वीरियं उबओगो य एयं जीवस्स लक्खणं ॥ ११ ॥
मूलः --- नाणं च दंसणं चेव;
छायाः - ज्ञानञ्च दर्शनञ्चैव चारित्रञ्च तपस्तथा । वीर्यमुपयोगश्च एतज्जीवस्य (नाणं) ज्ञान
लक्षणम् ॥ ११ ॥
अन्वयार्थ:- हे इन्द्रभूति ! (च) और (दंसणं) दर्शन (चेष) और (चारित) चारित्र (च) और ( तवो) तप ( तहा) तथा प्रकार की ( बीरियं) सामर्थ्यं ( प ) और ( उवभोगो) उपयोग (एम) यही ( जॉबस्स) आत्मा का ( लक्खणं) लक्षण है ।
भावार्थ :- हे गौतम! ज्ञान, दर्शन, तप, क्रिया और सावधानीपन, उपयोग ये सब जीव ( आत्मा ) के लक्षण हैं ।
मूलः -- जीवाऽजीवा य बंधो य पुष्णं पावासवो तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव ॥ १२ ॥ छाया: - जीवा अजीवाश्च बन्धश्च पुण्यं पापाश्रवी तथा ।
संवरो निर्जरा मोक्ष: सन्त्येते तथ्या नव ॥ १२ ॥ अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! (जीवाजीवाय) चेतन और जड़ (य) और (बंधी) कर्म (पुण्णं ) पुण्य ( पावासबी) पाप और आश्रव ( तहा) तथा ( संवरो) संबर (निज्जरा) निर्जरा (मोक्लो) मोक्ष (एए) ये ( नव) नौ पदार्थ ( तहिया) तथ्य (संति) कहलाते हैं ।
भावार्थ:- हे गौतम! जीव जिसमें चेतना हो । जड़ चेतनारहित । बंध जीव और कर्म का मिलना । पुष्य शुभ कार्यों द्वारा संचित शुभ कर्म । पाप दुष्कृत्यजन्म कर्म बंध | लव कर्म जाने का द्वार संवर आते हुए कर्मों का रुकना ।