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के भय एवं प्रलोभन साधना-पथ से विचलित ही कर सकते है।
सम्यग्-दृष्टि प्रात्मा ही मोक्षमार्ग का पथिक हो सकता है। चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवे गुणस्थान तक सभी जीव साधक माने जाते है। इसी कारण साधन -क्षेत्र सभी साधकों की मनोभूमिका में एक समान नही हो सकती, क्योकि मोह-कर्म का उदय, उपशम, क्षयोपशम सबका एक समान नहीं हो सकता । केवल क्षायिक भाव ही एक ऐसा भाव है जो सब में एक समान होता है ।
नमस्कार मन्त्र श्रुतज्ञान है, इसका उद्भव केवल-ज्ञान रो हुआ है, श्रुतज्ञान घातिकर्मो को नष्ट करने के लिए और केवल-ज्ञान उत्पन्न करने के लिए एक सफल साधन है, अत: नमस्कार मन्त्र का जप श्रुत-ज्ञान की ही पाराधना है । श्रुतज्ञान का आराधक ही सच्चा साधक है।
साधक जिस लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है वह है सिद्धत्व की प्राप्ति, यही लक्ष्य सर्वोपरि है । देहमुक्त अवस्था के बिना ऐसी कोई गति या जन्म नहीं है जहा पहुंच कर दुखों से सर्वथा बचा जा सके । जब तक जीव के साथ पाठ कर्म है, तब तक यह स्थूल देह मिलती ही रहेगी। स्थल देह ही भोगायतन है । भोगायतन का अर्थ है जिसमे रहकर जीव शुभ-अशुभ कर्मों के फल रूप सुख-दु.ख की अनुभूति करता
[प्रथम प्रकाश