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कृत्रिम पुष्प-वर्षा, योजनगामिनी वाणी, मनोहर चामर-युगल, अतीव श्रेष्ठ सिंहासन, भामण्डल, छत्र, तथा मधुर ध्वनि युक्त देव-दुंदुभि इन आठ अतिशयों को प्रातिहार्य कहा जाता है । जिस प्रकार प्रतिहारी अर्थात् द्वारपाल अपने स्वामी के पास द्वार पर उपस्थित रहता है, उसी प्रकार यथावसर आठ प्रातिहार्य भी अरिहन्त भगवान के समीप उपस्थित रहते है । साधारण लोग इन आठ प्रातिहार्यों से ही अरिहत भगवान की पहचान करते है । प्रातिहार्य से बाह्य विभूति की और अतिशय से अन्तरंग व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति होती है, यही दोनों मे अन्तर है।
अरिहन्तों के बारह गुण
शुक्ल ध्यान, वीतराग-सयम और यथाख्यात-चारित्र के द्वारा जिसकी आत्मा से सभी घातिकर्म सर्वथा अलग हो जाते है, उस उच्चतम आत्मा को स्नातक कहते हैं। यह अवस्था तेरहवें, चौदहवे गुणस्थानवी जीवो की होती है। इन दोनों गुण-स्थानो मे रहनेवाले साधक स्नातक कहे जाते है । स्नातक अवस्था को प्राप्त जीवो मे सभी गुण अपने आप मे पूर्ण होते है, यदि एक भी गुण अपूर्ण से पूर्ण हो जाय तो उसके साथ सभी गुण पूर्ण हो जाते है। उनमें दोनो प्रकार के गुण होते है सामान्य और विशेष । सामान्य की अपेक्षा विशेष गुण अधिक महत्त्वपूर्ण होते है, जिन्हे हम दूसरे शब्दो मे असाधारण गुण मन्त्र ]
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