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पशु हो या नपुंसक हो. वहां ठहरना ब्रह्मचर्य के लिए हितकर नही होता है, अत: सदैव विविक्त-शयन-आसन का सेवन करना ही श्रेयस्कर है।
दसरी गप्ति-विपरीत-लिंगी के साथ एक प्रासन पर न बैठे, उसके उठ जाने पर भी एक मुहूर्त तक उस स्थान पर साधु को नहीं बैठना चाहिए, विपरीत लिंगियों से संपर्क नही रखना चाहिये।
तीसरी गुप्ति-विपरीत लिंगियों की चर्चा न करे, क्योंकि उनकी सुन्दरता का, पहरावे का, शृंगार का, हावभाव का वर्णन करने से वासना उत्तेजित हो जाती है ।
चौथी गुप्ति-विपरीत लिंगी के मनोहर अंगों को न देखे । सूर्य को देखने से जैसे कच्ची आंखों को हानि पहुंचती है, वैसे ही विपरीत लिंगी को देखने से ब्रह्मचर्य का भङ्ग होना या प्रोज का प्रवाहित हो जाना सहज हो जाता है ।
पांचवीं गुप्ति-काम-वर्धक औषधियों, भोज्य एवं पेय पदार्थो का उपयोग न करे । जिसमें से घी टपक रहा हो, उसको प्रणीत एवं गरिष्ठ भोजन कहते हैं। वह विकार-जनक होता है। विकार दो तरह का होता है-रोग-वर्द्धक और वासनावर्द्ध क । जैसे दुर्बल व्यक्ति के लिए प्रणीत भोजन रोग-वर्द्धक होता है, वैसे ही प्रणीत भोजन-पानक आदि काम-वर्द्धक भी होते है । अतः ऐसे भोज्यों का परित्याग भी साधक व्यक्ति के लिये आवश्यक माना गया है । नमस्कार मन्त्र ]
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