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३. जिस तरह मृग एक स्थान में नहीं रहता, उसी तरह साधु भी कल्प की मर्यादा रखते हुए एक स्थान पर नहीं टिकता, वह क्षेत्र-मोह की दलदल में नही फसता ।
४. जैसे मृग रुग्ण हो जाने पर भी औषधि की अपेक्षा नहीं रखता, किसी से सेवा की कामना नहीं करता, वैसे ही साधु भी उत्सर्ग-मार्ग का अवलंबन लेकर रुग्ण होने पर भी चिकित्सा नहीं कराते, न सेवा लेते हैं और न अपनी सेवा के लिए किसी की अपेक्षा रखते हैं।
५. जैसे मृग रोग आदि के उत्पन्न होने पर एक स्थान में ठहर जाता है, वैसे ही साधु भी रोग या वृद्धावस्था के कारण स्थिरवास करता है।
६. जैसे मृग रुग्ण हो जाने पर अपने साथियों की सहायता नहीं चाहता, वैसे ही साधु भी स्वजनों की या गृहस्यों की शरण की अपेक्षा नही रखता।
७. जैसे मृग नीरोग होने पर उस स्थान में बैठा नही रह जाता है, बल्कि उसे छोड़ देता है, वैसे ही साधु भी रोग
आदि से मुक्त होते ही ग्रामानुग्राम विहार करने लगता है। ६. धरणी
___ साधु पृथ्वी के समान होता है । धरती में जो विशेषताएं हैं, वे विशेषताएं साधु में भी पाई जाती हैं, दोनों की समानता बतलाने के लिए शास्त्रकारों ने धरती की उपमा से १५६ ]
[षष्ठ प्रकाश