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नमस्कार का स्वामी नमस्कर्ता ही है ।
___ शब्द, समभिरूढ़ और एवं भूत इन तीन नयों के अभिमत में शब्द बोलना, मस्तक आदि झुकाना, यह नमस्कार नही है, जब उपयोग अर्थात् ज्ञान नमस्कार मे लीन हो जाता है, तब वह उपयोग या ज्ञान ही नमस्कार है । नमस्कार के भाव ही नमस्कार हैं। इस अपेक्षा से नमस्कार का स्वामी नमस्कर्ता ही है। इस प्रकार नयों की दृष्टि से वस्तु स्वरूप को समझने के लिये उपयोग लगाना चाहिए।
नयों की दृष्टि से ऐसा भी ध्वनित होता है कि नमस्कार दो प्रकार का होता है द्वैत और अद्वैत । "मैं उपासना करने वाला हूं और अरिहंत सिद्ध आदि मेरे उपास्य हैं," इस प्रकार जहां उपास्य और उपासक में भेद की प्रतीति होती है वह द्वैत-नमस्कार है । जब रागद्वेष के संकल्प-विकल्प नष्ट हो जाने पर चित्त की अत्यधिक स्थिरता हो जाती है
और उपास्य और उपासक की भेद-प्रतीति भी नष्ट हो जाती है, केवल स्व-स्वरूप पर ही ध्यान अवस्थित हो जाता है, तब वह अद्वैत-नमस्कार है। इनमें पहला दूसरे का साधनमात्र है, पूरक एव पोषक है। ज्यों-ज्यों साधना के क्षेत्र में साधक प्रगति करता है, त्यों-त्यों साधक अभेद प्रधान बन जाता है। अद्वैत नमस्कार की साधना के लिए ही साधक को निश्चय दृष्टि की ओर बढ़ना चाहिए । नमस्कार मंत्र पढ़ते हुए साधक को नमस्कार के पांच महान् पदों के साथ अपने आपको
नमस्कार मन्त्र]
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