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४. पूर्ण विकसित । इन में से अविकसित अवस्था मिथ्याष्टियों में पाई जाती है। विकसिताविकसित अवस्था अविरत सम्यग्दृष्टियों में तथा देशविरत-श्रावको में पाई जाती है । इनके विषय में हम यहां चर्चा नहीं करते। शेष दो अवस्थाओं मे परमेष्ठी के पांच पदों का समावेश हो जाता है, क्योंकि पांच पद ही विश्व के नंदनीय, नमस्करणीय एव पूजनीय हैं । अरिहंत और सिद्ध, ये दो पद पूर्ण विकसित हैं ।
जो जीव चरम एवं परम लक्ष्य को प्राप्त कर गए है, उन्हें सिद्ध कहते है तथा जो निश्चय ही निकटतम भविष्य में सिद्धन्व प्राप्त करनेवाले हैं, अथवा जिन्होंने सिद्धत्व की परिराधे में प्रवेश कर लिया है, किन्तु अभी सिद्धत्व को प्राप्त नहीं किया, वे अरिहंत कहलाते है । ये दोनो पद परम श्रद्धेय होने से सुदेव हैं । जैन दर्शन देव-गति प्राप्त जीवों को पूज्य एवं वन्दनीय स्वीकार नहीं करता, क्योंकि वे भी संसार के नियमों से बद्ध हैं, अत: वे सुदेव नहीं हो सकते । जिन्होने
आध्यात्मिकता की सभी घाटियों को पार कर लिया है, वे ही सुदेव कहे जा सकते है ।
प्राचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन पद विकसित अवस्था के माने जाते हैं, इन्हें साधक या सुगुरु भी कहा जाता है । जो साधना के क्षेत्र में परम लक्ष्य की ओर अविराम गति से आगे बढ़ते जा रहे हैं, जिनका चारित्र ज्ञान एवं विज्ञान के प्रकाश से प्रकाशमान हो रहा है, जिनका
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