________________
सर्वथा अभिन्न अनुभव करने का अभ्यास करना चाहिए । प्रादि के तीन नय भेद प्रधान हैं और अन्तिम चार नय अभेद प्रधान है । बाहर से भीतर की ओर बढ़ना निश्चय-दृष्टि है और भीतर से बाहर की ओर आना व्यवहार दृष्टि है।
अरिहन्त पद की प्राप्ति के लिये प्राचार्य एवं उपाध्याय पद का प्राप्त करना अत्यावश्यक नहीं है, किन्तु उसके लिए साधुत्व' का होना निश्चित है । अतीत काल में अनन्त ऐसे जीव हुए है, जिन्होंने आचार्य और उपाध्याय पद को प्राप्त किया ही नहीं, फिर भी उन्होंने क्रमशः अरिहन्त और सिद्ध पदको प्राप्त किया है। इसका विशेष कारण यही है कि साधुत्व के पूर्ण विकास के बिना अरिहतन्व की प्राप्ति असम्भव होती है। साधुता से अरिहतपन और अरिहंतपन से सिद्धपन को प्राप्त करने का क्रम है। अत: निश्चय नय से यदि देखा जाए तो
आत्म-विकास के तीन ही पद है। तीसरा और चौथा पद तो केवल व्यावहारिक है । पदि इन पदों में साधुपन का विकास बढ़ता ही जाए तो इन दो पदो की महत्ता भी वही है जो सुधर्मा स्वामी और जम्बू स्वामी को प्राप्त हुई । अपने कर्तव्य का पालन करते हुए ही परम एवं चरम लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
पंच परमेष्ठी पद सादि है या अनादि ? जैन दर्शन इस शंका का समाधान अनेकान्त दृष्टि से करता है -प्रवाह से पांचों पद अनादि कालीन हैं, ऐसा समय कभी न था, न है, १७२]
[ षष्ठ प्रकाश