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नमस्कार मन्त्र के सन्दर्भ में प्रासंगिक चर्चा
प्रश्न हो सकता है "नमो सिद्धाणं" और "नमो लोए सव्व साहूणं" ये दो ही पद पर्याप्त है, क्योंकि अरिहंत प्राचार्य और उपाध्याय इन तीन पदों का समावेश साधु पद में ही हो जाता है, फिर दो पद न कह कर पांच पद क्यों कहे गए हैं।
उत्तर में कहा जा सकता है कि अरिहन्त, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन पद इनके पारस्परिक अन्तर को स्पष्ट करने के लिये ही तो रखे गये हैं । सभी साधु अरिहंत, प्राचार्य और उपाध्याय के गुणों से सम्पन्न नही हो सकते, साधुओं में से कुछ अरिहन्त हो जाते हैं, कुछ विशिष्ट देशना देने से
आचार्य हो जाते है, कुछ सूत्र पढ़ाने वाले उपाध्याय हो जाते हैं, कुछ असाधारण गुणों की विशेषता से साधु माने जाते हैं जो विशेषता अरिहंतों में होती है, वह अन्य किसी में नहीं, जो विशेषताएं प्राचार्यों में होती है, वह अन्य किसी में नहीं और जो विशेषताएं उपाध्यायों में हैं वे अन्य किसी में नहीं। सामान्य साधु को नमस्कार करने से विशिष्ट गुणसम्पन्न अरिहंत आदि का न तो स्मरण होता है और न वैसी भावना ही आती है । विशेषण अन्य द्रव्यों का तथा अन्य गुणों का व्यावर्तक होता है, अत: दो की अपेक्षा पांच पदों को नमस्कार करना अधिक उपयुक्त है।
दूसरा प्रश्न यह भी हो सकता है कि अरिहंत का पद बड़ा है या सिद्धों का ? यदि हम ऐसा कहें कि सिद्ध सर्वथा नमस्कार मन्त्र]
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