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है, किन्तु अपनी छाया से श्रान्त पथिकों को सुख-शान्ति पहुंचाता है, वैसे ही साधु भी अनेक प्रकार के कष्ट सहकर भी अपने आश्रय में आनेवाले को सुख-शान्ति देता है ।
२. जैसे वृक्ष सेवा करने वाले को फल देता है, वैसे ही साधु भी स्वर्ग या अपवर्ग तथा अभ्युदय एवं निःश्रेयस-सिद्धि रूप फल देनेवाला होता है।
३. जैसे वृक्ष कुल्हाड़ी से काटनेवाले पर भी क्रोध नहीं करता, वैसे ही साधु भी निन्दा करनेवाले या अपमान करने वाले पर क्रोध नहीं करता।
४. जसे वृक्ष चंदन-केसर आदि से पूजा करने पर प्रसन्नता का अनुभव नहीं करता, वैसे ही साधु भी अधिक मान-सन्मान करने पर भी प्रसन्नता का अनुभव नहीं करता।
५. वृक्ष जैसे फल-फूल, पत्ते आदि देने पर भी बदले में दूसरों से कुछ नहीं चाहता, वैसे ही साधु भी उपदेश देने पर बदले में श्रोताओं से कुछ नही चाहता।
६. जैसे वृक्ष तूफान आदि के चलने पर और अनेक कष्ट होने पर भी अपने स्थान को नहीं छोड़ता, वैसे ही साधु भी प्राणान्त कष्ट माने पर भी संयम-मर्यादा को नहीं छोड़ता, वह सभी परिस्थतियों में अडिग बना रहता है ।
७. जैसे वृक्ष बिना किसी भेद-भाव के दूसरों को सहारा देता है, वैसे ही साधु भी एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक
नमस्कार मन्त]
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