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पूर्वोक्त तीन प्रकार की एकाग्रता को प्राप्त करना साधक का लक्ष्य है । जिन साधनो से एकाग्रता हो सकती है अब उनका उल्लेख किया जाता है ।
२३. ज्ञान-संपन्नता–सम्यग्ज्ञान से साधक सब पदार्थों को भली-भांति जान लेता है, जैसे धागे में पिरोई हुई सुई कड़े-कचरे में गिरने पर भी गुम नहीं होती, वैसे ही शास्त्रीय ज्ञान को पाकर जीव संसार रूप महावन में भटक कर विनष्ट नहीं होता एवं विशिष्ट ज्ञान, विनय, तप एवं चारित्र के योगों को प्राप्त करता है । इतना ही नहीं वह साधक स्वदर्शन और परदर्शन में प्रामाणिकता भी प्राप्त कर लेता है, उसका कहा हुआ वचन सर्वमान्य बन जाता है ।
२४. दर्शन-सपन्नता–सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से साधक संसार-परिभ्रमण के हेतु-भूत मिथ्यात्व का उच्छेद करता है, उसके क्षय होने से क्षायिक सम्यग्दर्शन अर्थात कभी भी न बुझने वाली ज्योति की प्राप्ति हो जाती है, इससे जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्र से अपने आप को संजोये रखता है । उन्हें सम्यक् प्रकार से आत्मसात् करता हुआ विहरण करता है।
२५. चारित्र-सपन्नता-रत्नत्रय के अनुरूप प्राचरण चारित्र है और इस की उपयोगिता धर्मध्यान से शुक्लध्यान तक पहुंच कर सभी कर्मों का परिक्षय करने में ही है ।
नमस्कार मन्त्र]
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