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इन्द्रियां हैं, वे पंचेन्द्रिय जीव कहे जाते हैं । इन सभी प्राणियों को बस कहा जाता है। इनमें भी कुछ चाक्षुष हैं और कुछ अचाक्षुष, अणुवीक्षण यन्त्र के द्वारा भी जिन का प्रत्यक्ष हो सकता है, वे सब जीव चाक्षुष है, शेष अचाक्षुष हैं ।
जो जीवों के अस्तित्व को स्वीकार करता है, वह उनके द्वारा की जानेवाली सुख-दुःख की अनुभूति को भी मानता है। जो जीव किसी प्रबल व्यक्ति से भय-भीत होता है, धूप से छाया मे और छाया से धूप में स्वेच्छया जा सकता है और आ सकता है, वह त्रस है । सभी जीवों को दुःख अप्रिय है, सभी को सुख प्रिय है और सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। अतः साधु के हृदय मे उनके लिये अनन्त अनुकंपा होती है। साधु सब का भला सोचते हैं, बुरा नहीं, किसी का भी अहित नहीं चाहते । यदि कभी काम पड़े तो वे अपनी बलि देकर भी जीवों की रक्षा करते है । मेरे से उनकी किसी तरह पीड़ा या हिंसा न हो जाए, इसी उद्देश्य से वे यतना एवं ध्यान से चलते हैं। उनका उठना, बठना, लेटना, खाना-पीना, बोलना, ये सभी क्रियाएं उपयोग पूर्वक होती हैं। उनका अहिंसात्मक व्यवहार जैसे मित्र से होता है, वैसा ही अहिंसात्मक व्यवहार शत्रु के प्रति भी होता है । जो पूर्ण अहिंसक होता है, वह दूसरों से भी हिसा नहीं कराते और जो हिंसा करनेवाले हैं, उनकी हिंसामयी दुष्प्रवृत्ति का समर्थन भी नहीं करते । अहिंसा की नमस्कार मन्त्र]
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