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किया गया हैं, जिन श्रमण निर्ग्रन्थों में वे उपमाएं घटित होती हैं, वे सदा-सर्वदा वंदनीय, पूजनीय एवं नमस्करणीय हैं । वे उपमाएं संख्या में इकत्तीस हैं, जैसे कि
सुविमल-वर-कंस-भायणं व मुक्कतोए-प्रतीव निर्मल उत्तम कांसे का वर्तन जैसे पानी के संपर्क से मुक्त रहता है, वैसे ही साधु भी आसक्तिपूर्ण सम्बन्धों से सर्वथा रहित होते हैं।
२. संखे-विव-निरंजणे, विगय-राग-दोस-मोहेजैसे शंख पर अन्य किसी तरह का रंग नहीं चढता, वैसे ही साधु भी राग-द्वेष, मोह प्रादि कि कालिमा से रहित होते
३. कम्मे इव इन्दियाते-जैसे कछुपा चार पैर और पांचवीं गर्दन-इन पांच अवयवों को संकोच कर कमठ में अपने को सुरक्षित कर लेता है, वैसे ही साधु भी संयम के कमठ में इन्द्रियों को नियन्त्रित कर लिया करता
४. जच्च कंचणगं व जायरूवे-जैसे शुद्ध सोना सौंदर्यपूर्ण होता है वैसे ही साधु भी आन्तरिक सभी विकारों से रहित प्रशस्त आत्मस्वरूप वाले हुमा करते हैं ।
५. पोक्खर-पत्तं व निरुवलेवे-कमल के पत्ते की तरह संयमी साधु भी संसार-सागर के बीच प्रासक्ति के जल से कभी लिप्त नहीं होता है, वह निर्लेप रहता है । नमस्कार मन्त्र]
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