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१६. सारय-सलिलं व सुद्धहियए-शरद् ऋतु में जैसे जल शुद्ध एवं स्वच्छ होता है, वैसे ही साधु भी स्वच्छ एवं शुद्ध हृदय वाले होते हैं।
२०. भारंडे चेव अप्पमत्ते-भारंड पक्षी की तरह साधु भी सदैव अप्रमत्त रहते हैं।
२१. खग्गिविसाण व एगजाए-गेंडे के सींग के समान अकेले अर्थात् राग-द्वष आदि साथियों से रहित रहते
२२. खाणु चेव उडकाए-ठूठ के समान साधु भी निश्चेष्ट कायोत्सर्ग करने वाले होते हैं ।
२३. सुन्नागारे व्व अप्पडिकम्मे-शून्य गृह का जैसे कोई संमार्जन एवं सजावट नहीं करता, वह शोभा-रहित होता है, वैसे ही साधु भी विभूषा, शोभा आदि शरीर की सजावट से रहित होते हैं । वे शरीर के नहीं धर्म के दास होते हैं।
२४. सुन्नागारावणस्संतो निवायसरणप्पदीव. ज्झाणमिव निप्पकंपे-सूने घर या सूनी दुकान के अंदर वायु रहित स्थान में रखे हुए दीपक की तरह साधु भी नाना प्रकार के उपसर्गों के होने पर भी शुभ ध्यान करते हुए निष्प्रकप रहते हैं।
२५. जहा खुरो चेव एगधारे-उस्तरे की धार जैसे एक समान होती है, वैसे ही साधु भी केवल उत्सर्ग मार्ग
[षष्ठ प्रका