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का अवलम्ब न लेकर साधना करते हैं।
२५. जहा अही चेव एगदिट्ठी-जैसे सांप की दृष्टि एक लक्ष्य की प्रोर होती है, वैसे ही साधु भी एक मात्र मोक्षमार्ग पर एक दृष्टि से साधना करनेवाले होते हैं।
२७. आगासं चेव निरालंबे-जैसे आकाश किसी अन्य के सहारे पर नहीं ठहरा हुआ है, वैसे ही साधु भी आलंबन रहित अर्थात् स्वावलंबी होकर साधना में लीन रहते हैं । . १८. विहगे विव सव्वनो विप्पमुक्के-पक्षी की तरह साधु भी परिग्रह से सर्वथा मुक्त होते हैं।
२९. कय-पर-निलय जहा चेव उरगे-जैसे सर्प अपने लिये निवास-स्थान नहीं बनाता बल्कि दूसरे के बनाए हुए स्थान में निवास करता है, वैसे ही साधु भी दूसरे के बनाए हुए स्थान में निवास करते हैं।
३०. अनिलो व्व अपडिबद्ध-वायु की तरह साधु भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्रतिबद्ध नहीं होते ।
३१. जीवो व्व अपडिहयगती-परलोक जाते समय जैसे जीव की गति बे-रोक-टोक होती है, वैसे ही साधु की गति भी बिना किसी प्रतिबन्ध के इस धरातल पर हुमा करती है। वे ग्राम-ग्राम और नगर-नगर में विचरण करते रहते हैं। उनकी संयम-साधना में कोई भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और 'भाव प्रतिबंधक नहीं होता । निर्बाधगति से वे नमस्कार मन्व]
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