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होता है, फिर भी दोनों में अन्तर है । जब किसी व्यक्ति से संकोच किया जाता है तब उसे लज्जा कहते है और जब विवेक पूर्वक किसी पाप-कर्म को करने या निषिद्ध कार्यों में प्रवत्ति होने से संकोच किया जाता है, तब उसे संयम कहा जाता है । संयम-परायण व्यक्ति को संयमी कहते हैं ।
४. संयत-जो साधक मन. वचन, काय एवं इन्द्रियों को प्रबल निमित्त मिलने पर भी उन्हें बहिर्मुखी नहीं होने देता, वह संयत है।
५. विरत-सब तरह के पाप-कर्मों से जो विरक्त है, वह विरत माना जाता है।
६. मुनि-जिस मननशील साधक की कथनी और करनी में एकता है, वह मुनि है ।
७. श्रमण-जो स्वावलम्बी है, जिसको अपने द्वारा किए हुए श्रम पर ही विश्वास है, जो समाज से लेता कम है पौर देता अधिक है, जो निरन्तर संयम और तप में श्रम करने बाला है,वह श्रमण है।
८. निर्ग्रन्थ-जो जर, जोरू और जमीन की ग्रन्थियों से मुक्त हो चुका है, अथवा जो मोह-ममत्व की गांठों को तोड़ चुका है, वह निग्रंन्थ है।
१. तपोधन-भली प्रकार से किया हुआ तप ही जिसका जीवन साध्य है, जिसका यह विश्वास है कि तप नमस्कार मन्त्र]
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