________________
अपना उत्तरदायित्व समझता है बल्कि वह पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और वनस्पति प्रादि अव्यक्त चेतना वाले जीवों की सुरक्षा का भी पूर्ण ध्यान रखता है ।।
१६. पृथिवीकाय-यावन्मात्र खनिज पदार्थ हैं, वे दो तरह के हैं-सचेतन और अचेतन । स्वकाय से ग परकाय से जो पृथ्वी प्रचित हो गई है, वह अचेतन है, शेष सब सचेतन हैं । जो सचेतन हैं वे वृद्धि को पाते हैं । खानों में पड़े हुए धातु, रत्न, पत्थर, मिट्टी, सब संवधित होते हैं । गेरू, पाण्डु, हरताल नमक, वजी इत्यादि सभी पदार्थ सचित होने से इनका उपयोग साधु अपने या दूसरे के लिये नहीं करता, उनकी हिंसा से भी उतना ही बचाव करता है, जितना कि मनुष्य की हिंसा से । जो लक्षण जीव में पाए जाते हैं, पृथिवी-काय में भी वे ही लक्षण पाए जाते हैं, प्रतः मनुष्यादि की तरह पृथिवी-काय को भी सचित समझना चाहिए । जैसे कोई मनुष्य प्रांखों से हीन है, कानों से बहरा हैं
और वाणी से मूक है, यदि कोई उसे मारे-पीटे या उसके किसी भी अवयव का छेदन करे या भाले आदि से वींधे तो वह भयभीत होता है और दु:खानुभव करता है, पर कह कुछ नहीं पाता, वैसे ही पृथिवी कायिक जीव भी दु:ख अनुभव करते हैं, पर उसे व्यक्त नहीं कर पाते । अत: साधु पृथिवीकायिक जीवों की भी न स्वय मन-वाणी और काय से हिंसा करते हैं, न दूसरे से हिंसा कराते हैं और पृथिवीकायिक जीवों की हिंसा करते हुओं का मन- वाणी और काय से नमस्कार मन्त्र ]
१३१