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कषायों को बलहीन कर देने पर कार्मण शरीर मैं प्रवेश करते हुए नवीन कर्मो का सवरण हो जाता है और पूर्व-कृत कर्मक्षय हो जाते हैं। संयम और तप इन दोनों का समावेश चारित्र में हो जाता है। ज्ञानादि रत्नत्रय से महावेदना के उपस्थित होने पर सहनशक्ति बढ़ जाती है, अब उसी का उल्लेख किया जाता है।
२६. वेदनातिसहनता-प्रतिकूल परीषह एवं उपसर्गों के उपस्थित होने पर यदि किसी भी प्रकार की वेदना, कष्ट, प्राधि-व्याधि आदि विविध दुःख उत्पन्न हो जाएं, तब उन्हें अपने पूर्वकृत कर्मों का फल जानकर समभाव से सहन करना, मन से भी किसी पर द्वेष न करना ही साधता की पहचान है । सहनशक्ति की पराकाष्ठा ही साधुता की पूर्ण पहचान है। वेदना सहने वाले साधक मुत्यु का भी सहर्षआह्वान करते हैं।
२७. मारणान्तिकातिसहनता-जिसको जीने की प्राणा नहीं और मरण का भय नहीं, वह मृत्यु को आते देखकर घबराता नहीं है । जो मानव अपने जीवन-काल में सदैव दुःखों एवं मृत्यु से परिचय बनाए रखता है वह उनके आने पर भी भयभीत नहीं होता, उसे न कोई दुःख डरा सकता है और न मृत्यु ही। अत: मारणान्तिक कष्टो को भी समता से सहन करना साधुता ही है। साधु-जीवन गृहस्थ जीवन से बहुत ऊंचा है, साधु की भावना और गुण दोनों वीतरागता १२६ ]
[षष्ठ प्रकाश