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में आगे बढ़ने की अभिलाषा लोभ नही, वह तो साधना है, अतः इनके लिए लोभ का प्रयोग नहीं किया जाता है । साधनाकाल में लोभ ही ऐसा वाधक तत्त्व है जो साधक को आगे नहीं बढ़ने देता और पाप-कर्मों के प्रति आकर्षण बनाए रखता है। हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार एव परिग्रह अादि सब पाप-कार्यो मे लोभ ही मानव-मन को प्रवृत्त कराता है। सयम-साधना में लोभ का प्रवेश न होने देना ही लोभ-विवेक है। संतोष की पावन परिधि मे प्रवेश पाना ही विवेक की उपयोगिता है । विवेक से भावों में सत्य सूर्य भगवान् की तरह जगमगाने लग जाता है अब उसी भावसत्य का वर्णन करते हैं।
१५. भाव-सत्य- जब अन्त:करण सत्य से ओत-प्रोत हो जाता है, तब किसी भी प्रकारकी मलिनता मन मे नही रह जाती है, जब धर्मध्यान और शुक्लध्यान से तथा अनुप्रेक्षा से भावों की शुद्धि होती है उसे भाव-सत्य कहा जाता है । सम्यग् दर्शन से सत्य जगमगा उठता है और मिथ्या-दशन की विद्यमानता में द्रव्य-सत्य तो हो सकता है, भावसत्य नही। शरद् ऋतु में जैसे पानी शुद्ध एव स्वच्छ होता है, वैसे ही सतो का अन्तःकरण शुद्ध होता है । जब भावो में सत्य है तो क्रिया में उस का उदय होना निश्चित है, अतः अब करण-सत्य का वर्णन किया जाता है।
१६. करणसत्य - वस्त्र-पान आदि उपकरणों की प्रतिलेखना तथा अन्य बाह्य क्रियाओं में शुद्ध उपयोग पूर्वक प्रवृत्ति करना करण-सत्य है, अथवा जिस क्रिया में १२२]
[षष्ठ प्रकाश