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क्योंकि द्वन्द्वात्मक जगत में मान के दूसरे छोर पर अपमान भी अवश्य रहता है, जिन निमित्त कारणों से अभिमान जागृत हो सकता है, उनके मिल जाने पर भी जीवन में अभिमान एवं अहंभाव को उत्पन्न न होने देना ही साधुता है और यह साधुता मान-विवेक की साधना द्वारा ही प्राप्त हो सकती है ।
(ग) माया-विवेक-माया अर्थात् कपट एक भयंकर विकार है, इस मे पर-वञ्चकता तो होती ही है, साथ ही
आत्मवञ्चकता भी हुआ करती है। इसका प्रयोग प्रायः हिंसक, शिकारी, असत्यवादी, चोर, दुराचारी, लोभी तो करते ही है, किन्तु ज्येष्ठ एव श्रेष्ठ होने के लालच मे व्यक्ति दान, शील और तप मे भी माया-कपट करने लग जाते है। यही कपट आत्म-वञ्चना है। 'माया मित्ताणि नासेइ'-माया मैत्री का नाश कर देती है, कपट-पूर्ण व्यवहार किसी को भी अच्छा नही लगता । कपटी मानव सोचता कुछ है, बोलता कुछ है तथा व्यवहार कुछ और ही प्रकार का करता है, अत: धर्म-कार्यों मे यह माया वाधक ही है । कपट से मन, वाणी और शरीरव्यवहार को अछूता रखना ही माया-विवेक है ।
(घ) लोभ-विवेक-जब मानव भौतिक पदार्थों के प्रति आकृष्ट होता है, तब उसे लोभ कहते हैं । किसी को सांसारिक लोभ पीड़ित कर रहा है और किसी को पारलौकिक लोभ । भौतिक सुख सामग्री की प्राप्ति की ओर आकृष्ट करने में लोभ सब से आगे रहता है। विद्या और चारित्र के क्षेत्र नमस्कार मन्त्र
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