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उन्हें हटाने में करण सहायक हैं। प्रात्मा के विशिष्ट परिणाम ही करण हैं । करण तीन प्रकार के हैं १. यथाप्रवृत्तिकरण, २. अपूर्व करण और ३. अनिवृत्ति-करण । इनका परिचय इस प्रकार है
१. आयु-कर्म के अतिरिक्त शेष सात कर्मों में प्रत्येक कर्म की स्थिति को अन्तः कोटा-कोटि सागरोपम परिमाण रखकर शेष स्थिति को क्षय कर देनेवाले सम्यग्दर्शन के अनुकल आत्मा के परिणाम विशेष को यथाप्रवृत्ति-करण कहते है। अनादिकालीन मिथ्यादृष्टि जीव कर्मो की स्थिति को इस करण में ऐसे घटाता है जैसे महानदी मे पडा हुआ पत्थर घिसते-घिलते रेत बन जाता है । इस करण के द्वारा जीव राग-द्वेष की तीव्रतम गांठ के निकट पहुंच जाता है, किन्तु उस गांठ का भेदन नहीं कर पाता है।
२. जिस परिणाम-विशेष से भव्यात्मा राग-द्वेष की दुर्भेद्य ग्रन्थि को खोल देती है, उसे अपूर्व करण कहा जाता है। इस में यथाप्रवृत्ति-करण की अपेक्षा भावों की विशुद्धि अधिक होती है । विशुद्ध परिणामों से राग-द्वेष की तीव्रतम प्रन्थि को छिन्न-भिन्न किया जा सकता है ।
३. प्रकरण से जब राग-द्वेष की ग्रन्थि टूट जाती है, तव अध्यवसाय अधिकतर विशुद्ध हो जाते हैं । इस विशुद्ध परिणाम को ही अनिवृत्ति-करण कहा जाता है । इस करण वाले जीव का सम्यग्दर्शन प्राप्त करना अवश्यभावी होता है। १०२]]
[ षष्ठ प्रकाश