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अपूर्व-करण में ग्रन्थिभेद प्रारम्भ होता है और अनिवृत्तिकरण में ग्रन्थि-भेद की साधना पूर्ण हो जाती है। यही है सम्यग्दर्शन का क्रमिक विकास। साधुता के भाव कैसे उत्पन्न होते हैं ?
सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने के अनन्तर जब साधक अप्रत्याख्यान-कषाय-चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण-कषाय-चतुष्क रूप पाठ प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम या क्षय कर देता है, केवल सज्वलन-कषाय चतुष्क ही शेष रह जाता है, तब उस सम्यग्दृष्टि के विचार आत्मलक्ष्यी हो जाते हैं, प्रात्मसाधना की और उसका सजग होना अवश्यभावी हो जाता है। उसके विचार सांसारिक वासनाओं से लिप्त नहीं होते, जैसे भी कर्म-बन्धन से मुक्त हुआ जा सकता है, वह उन उपायों का प्रयोग प्रारम्भ कर देता है। उसी का नाम प्रव्रज्या अर्थात् मोक्ष की ओर प्रगति है। साधुवृत्ति का अंगीकार करना ही प्रव्रज्या है। जड़-चेतन के मोहजाल से निकल जाना ही प्रव्रज्या की सार्थकता है।
नमो लोए सव्व साहूणं-नमस्कार हो लोक में सब साधुनों को।
इस पांचवें नमस्कार-पद में “लोए" और "सव्व" ये दो विशेष शब्द जुड़े हुए हैं, जो कि अन्य पदों में नहीं हैं । अरिहन, प्राचार्य, उपाध्याय, ये तीन पद पांचवें पद नमस्कार मन्त्र ]