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का ही विकसित रूप हैं । साधुत्व के अभाव में उक्त तीनों पदों की भूमिका पर किसी भी ढंग से पहुंचा नहीं जा सकता। जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप मोक्षमार्ग की साधना करता है वही साधु है । यह पद पर-स्वभाव का निवत्तंक है और प्रात्म-स्वभाव का प्रवर्तक है । इस पद की साधना करनेवाले में न जीवन का मोह रहता है और न मृत्यु का भय । उसे न इस लोक में आसक्ति होती है और न परलाक मे। वह कभी शुद्ध उपयोग मे रहता है और कभी-कभी शुभ उपयोग मे भी, किन्तु अशुभ संकल्प उसके पावन मन में कभी पैदा नहीं होते । जैन धर्म व्यक्ति और वेष को इसना महत्व नहीं देता, जितना कि गुणों को प्रदान करता है, जिसमें साधन्व के भाव हैं, जैन मान्यता के अनुमार वही साधु है । केवल गच्छ आदि में रहने से साधु-वेष धारण करने मात्र से कोई व्यक्ति साधु नही बन सकता । इस मन्त्र के साधक की अन्तरात्मा कहती है कि मनुष्य लोक में जितने भी साधु-व-संपन्न सच्चे मर्थो में साधु है, उन सब साधुओं को मैं नमस्कार करता हूं।
सव्व साहूणं-इस पद का दूसरा अर्थ यह भी है कि कोई प्रौपशमिक संयमी है, कोई क्षायोपशमिक सयमी है, कोई क्षायिक संयमी है, कोई जिनकल्पस्थ है, कोई स्थविर कल्पस्थ है, कोई कल्पातीत सयमी है, कोई सामायिक चारित्री है, कोई छेदोपस्थापनीय चारित्री है, कोई परिहार-विशुद्धिचारित्री है, कोई सूक्ष्म संपराय चारित्री है, कोई यथाख्यातचारित्रवाला है, कोई प्रमत्त सयमी है, कोई अप्रमत्त सयमी है, १०४]
[.षष्ठ प्रकाश