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रूपी जिन-धर्म की आराधना के लिये उद्यत होना ही प्राचार्य का कर्तव्य है। चारित्र-धर्म सबके हित के लिये है, सुख के लिये है, सामर्थ्य के लिये है, मोक्ष के लिये है, और परमार्थ रूप है । इसी को विक्षेपणा-विनय प्रतिपत्ति कहते हैं। ४. दोष-निर्घातन-विनय-इस विनय का मुख्य उद्देश्य है कषाय प्रादि दोषों का उन्मूलन । जब किसी शिष्य में दोषों का उद्भव हो रहा हो, तब जिस विधि से दोषों का निष्कासन हो सके उसे 'दोष-निर्धातन-विनय' कहते है। उसके भी अनेक भेद है । जैसे कि -
(क) गण मे जब कभी कोई शिष्य क्रोधावेश मे प्रा जाए तो गणी का कर्तव्य है मीठे वचनों से नसकी क्रोधाग्नि को शान्त करे। शब्दो से ही क्रोध भड़कता है और शब्दों से ही वह शान्त होता है। जब हित एवं मधुर स्वभाव से कोई किसी को समझाता है तब क्रोध स्वय शान्त हो जाता है।
(ख) दुष्ट के दोष को दूर करना । यदि किसी शिष्य का चित्त दोषो से दूषित हो जाए तो उसको प्राचार और शील का उपदेश देकर दोषो को दूर करना, गणी का कर्तव्य है। जैसे माता बच्चे को हित-बुद्धि से समझा कर उसको सुधारती है, वैसे ही गणी भी हितभाव से शिष्य के दोषों का उन्मूलन करता है।
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]चतुर्थ प्रकाश