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(ग) जिस शिष्य की आकांक्षा भोगासक्त हो, संसाराभिमुखी हो, उसकी आकांक्षा को दूर करना भी गणी का परम कर्तव्य है । आकांक्षा के अनेको रूप हैं- भोजन, जल, वस्त्र, पात्र, विहार, यात्रा, विद्याध्ययन प्रादि की आकांक्षा को अभिलषित वस्तु की प्राप्ति द्वारा निवृत्त करना, एव उचित उपायों से उसकी इच्छा को पूर्ण करना गणी का कर्तव्य है।
(घ) क्रोध, दोष, कांक्षा आदि मे प्रवृत्ति न करते हुए अपने को समाधि के सुमार्ग की अोर लगाना या जीवादि पदार्थों की अनुप्रेक्षा में लगाना गणी का कर्तव्य है । जो अपने को और अपने नेश्राय में रहे हुए शिष्यों को उक्त दोषो से विमुक्त रखता है, वही आचार्य है ।
धर्माचार्य को देखते ही उन्हे वन्दना-नमस्कार करना, उन्हें सत्कार-सन्मान देना, एव उन्हें कल्याण एवं मंगल का हेतु मानना, उनकी तीन योग' से उपासना करना प्रासुक एव एषणीय आहार-पानी का प्रतिलाभ देना, उनकी आज्ञा का पालन करना, यह उनकी विनय-भक्ति का प्रकार है।
__ प्राचार्य तीर्थङ्कर भगवान के प्रतीक होते है, उपयोग पूर्वक उनकी कही हुई वाणी भी सत्य-पूत एवं शास्त्र-पूत हुआ करती है। प्राचार्य अपने को अरिहन्त भगवान का ईमानदार तथा वफादार अनुचर समझता है । मैने अपने नमस्कार मन्त्र
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